Book Title: Prastut Prashna
Author(s): Jainendrakumar
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

View full book text
Previous | Next

Page 241
________________ विकासकी वास्तविकता २२५ होती हो, लेकिन वह साँस जाने-अनजाने अहिंसा-धर्मको पोषण देनेहीके लिए हम ले पाते हैं। वैसा नहीं है तो कुछ भी नहीं है। पर मैं विश्वास दिलाऊँ तो कैसे ? कोयलेमें आग है, यह कोयला कैसे समझेगा? वह तो देखता है कि वह भीतर तक काला है, परन्तु आग उज्ज्वल है। वह अपनेको कालेपनसे त्रस्त पाता है । वह किस भाँति समझ कि वह दहकता स्फुलिंग भी हो सकता है ? किसीके पास दियासलाई हो और उसकी लौ कोयलेमें छु जाय तो देखते देखते कोयला शोला हो जायगा । पर वैसा होनेसे पहले कौन उसे समझा सकता है कि वह और आग एक हैं ? ऐसे ही मेरे पास छुआनेको चिनगारी हो तो इस निराशाके अंधेरेको ही उजला बना दूं। नहीं तो निराशाको क्या दूसरा कोई कभी समझ या समझा पाया है ? पर मैं कहता किनिराशाके बलपर कौन जी सका है ? इससे निराशामेंसे ही आशा जगानी होगी। मिथ्या आशा मिथ्या है, लेकिन वह आशा जिसका भोजन निराशा है, जिसके भीतर भौतिक आशाकी छाया भी नहीं है, वसी आशा कभी मूर्छित नहीं होगी। क्योंकि वह प्रार्थना-मुखी होगी, गवस्फीत वह न होगी । प्रश्न--इटली, जर्मनी, रूस आदि राष्ट्रों में जो आज आशा दिखाई द रही है और इसी आशाके आधारपर जो संगठन उनमें दीख रहा है, उसे आप सच्ची मानते हैं या मिथ्या ? उत्तर -- उस आशाका प्रभाव उन्हें कर्मण्य बनाता दीख रहा है । आशासे इससे अधिककी मांग नहीं करनी चाहिए। यदि वह प्रेरणा देती है, तो काफी है। ___ हाँ, उनकी सोचनेकी पद्धति और उनके स्वप्न बेशक मुझको ठीक नहीं मालूम होते । किसी विशेष जाति या दलके प्रति कट्टर बहिष्कारकी भावना रखना मेरी समझमें नहीं आता । उनमें मुझे अहंकारकी उत्कट गंध आती है । __उसके बाद उग्र राष्ट्रीयतासे भी मालूम होता है कि हमारा रोग मिटनेवाला नहीं है। बल्कि राष्ट्र-भावनाकी उग्रता स्वयंमें रोगका लक्षण है। इसके अनंतर व्यक्ति-पूजाकी भावना भी वहाँ जरूरतसे अधिक है। यदि वह भावना हार्दिक हो, तब तो भक्तिकी अधिकसे अधिक घनता भी आपत्तियोग्य नहीं है । लेकिन तरह तरहके प्रचारसे और आयोजनसे व्यक्तिके महत्त्वको कृत्रिमरूपसे बढ़ाना हितकर नहीं है । वह मानसिक गुलामीको जन्म देता है। असलमें वैज्ञानिक समाजवादमें ( =Scientific Socialismमें ) जब कि १५

Loading...

Page Navigation
1 ... 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264