Book Title: Prastut Prashna
Author(s): Jainendrakumar
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 239
________________ विकासकी वास्तविकता २२३ उत्तर-श्रद्धा तो पारस-मणि ही है । जिसको छुआओ वह सोना हो जाता है । किन्तु जो अनीतिमें आग्रह रख सकता है वह तो मोह है, श्रद्धा वह नहीं है । श्रद्धाका लक्षण है उत्सर्ग । मोहका लक्षण संग्रह और आग्रह है। __ प्रश्न--श्रद्धा और मोहकी जो आपने व्याख्या की वह बहुत लचीली है। क्या इस व्याख्याका यही मतलब नहीं होता कि अगर किसीको किसी कार्यका मोह है और वह किसी तरह सफल हो जाता है, तो आप उस मोहको श्रद्धा कहेंगे? इस तरह तो किसी असफल मनुष्यकी पवित्र श्रद्धा भी मोह कही जा सकती है ? उत्तर- हाँ, ऐसे विभ्रमकी बहुत आशंका है। असल में मोह आदमीसे बिल्कुल तो छूटता नहीं । आदमीकी समस्त इच्छा-अनिच्छा और संकल्प-विकल्प अंतमें किसी न किसी प्रकार के मोहसे जुड़े होते ही हैं। इसलिए यह भी कहा जा सकता है कि जिसे श्रद्धा माना वह भी किंचित् मोहसे शून्य नहीं होती। असलमें श्रद्धाकी आवश्यकता ही मोहके कारण है। किन्तु वह मोहसे बचनेके लिए होती है, उस मोहको गहरा करनेके लिए नहीं। __लेकिन यहाँ शायद हम अनिश्चित जमीनपर आ गये हैं । इसका निर्णय कैसे हो कि श्रद्धा उचित प्रकारकी है, या मोहजन्य होनेके कारण अनुचित प्रकारकी है ? श्रद्धा वह कैसी भी हो, फलदायक वही होती है । उचित है, तो फल सुफल होता है । उल्टी होनेपर वही फल दुष्फल गिना जाता है। एक पहचान अन्तमें यही रहती है कि देखा जावे कि व्यक्तिकी श्रद्धाका आधार उसका आग्रह है, या वह आधार निवेदन स्वरूप ( =confession स्वरूप) है । सच्ची श्रद्धा प्रार्थनामय होनी चाहिए। प्रश्न--श्रद्धाको सफलताकी कसौटी अगर मान लिया जाय तो आप आजकलकी फासिम, मासिज्म, अविकृत जनतंत्रवाद, गाँधीवाद आदिमेंसे किसका भविष्य सबसे अधिक उज्ज्वल समझते हैं? उत्तर-भविष्यवक्ता मैं नहीं हूँ। फिर यह जानता हूँ कि सत्य ही सदा सफल होता है और मानव समाज के लिए व्यवहार्य सत्य अहिंसा है। प्रश्न-परंतु अहिंसा तो कहीं भी नहीं है। अगर कहीं है तो वह केवल विचारों तक ही सीमित है । मैं तो यही समझता हूँ कि

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