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प्रस्तुत प्रश्न
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मानवता किसी प्रलयकी ओर बढ़ती चली जा रही है। कब कहाँ टकरायगी इसका कोई भरोसा नहीं है ।
उत्तर-अहिंसा हमसे बाहर थोड़े हो सकती है। बाहर देखेंगे तो दीखेगा कि जीवका भोजन जीव है। बाहर तो दीखेगा ही कि सशक्तकी जीत है, अशक्तकी मौत है । यह भी दीखेगा कि जीवनका मृत्युमें अंत होता है। मौतसे आगे जीवन जा ही नहीं सकता। इस बातको झूठ कौन कहता है ? कोई इसको झूठ नहीं कह सकता । जिस तलपर बहस संभव है उस तलका सत्य वही है।
बड़े बड़े योद्धा और महापुरुष मर गये । और जो आयेंगे सब कालके पेटमें समा जायँगे । काल तो यम है, अन्धकार है, और नकार है। किन्तु यह जानकर भी आज इस मिनट में जी रहा हूँ, आप जी रहे हैं, इस बातसे कैसे इन्कार किया जाय ? लाखों मरते रहे, लेकिन लाखों जनमेंगे भी और जिएंगे । मरेंगे तो मर लेंगे, लेकिन वे इतिहासको आगे बढ़ा जायँगे । क्या जीवनने कभी मौतसे हार मानी है ? और जो जीते जी खुशीसे मर गये हैं, क्या उन्होंने मौतके मुँहमें घुसकर भी जीवनकी विजयको सदाके लिए नहीं घोषित कर दिया है ?
इसीसे मैं कहता हूँ कि अहिंसा बाहर नहीं मिलेगी। लेकिन जो बाहर दीखता है, उससे भी बड़ा क्या वह नहीं है जो भीतर है, इसीसे दीखता नहीं है ? वह अहिंसा भीतर है। अहिंसा भावनात्मक है । भावना कर्मकी जननी है । मैं कहता हूँ कि घोरसे घोर हिंसक कर्मके भीतर भी कोई अहिंसाकी भावना नहीं हो तो वह हो तक नहीं सकता । खूखार जानवर अपने शिकारको मारता है, लेकिन वही अपने बच्चेको क्यों प्यार करता है ? मैं कहता हूँ कि वह मारता है तो उस प्यारको सार्थक करनेके लिए ही शिकारको मारता है । बच्चेको बचानेके लिए शेरनी भी अपनेको विपतमें झोंक देती है कि नहीं? सो क्यों ? वह मारती है अपने और अपनोंको बचानेके लिए। इस मारनेकी हिंसाको भी प्रेमकी अहिंसा ही सम्भव बनाती है।
लेकिन यह खतरनाक जगह है। यहाँ तर्क कहीं सब कुछको उलट-पलट न दे! उथल-पुथल हमारा इष्ट नहीं है। कहना यही है कि अगर इस घड़ी हम साँस ले रहे हैं, तो चाहे उस साँस लेनेमें भी सैकड़ों सूक्ष्म जीवोंकी हिंसा भी