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७-लेकिन अहिंसा ? प्रश्न-अगर मैं इसी तर्कसे आपके अहिंसावादको भी फासिज्म और मासिज्मके साथ ही रखू तो आपको कोई आपत्ति न होगी?
उत्तर-क्या अहिंसाका कोई 'वाद' है, और क्या वह मेरा है ? अगर सचमुच उसमें दूसरे 'वादों' की सब बुराइयाँ रहेंगी तो अहिंसाका 'वाद' निस्संदेह वैसा ही खतरनाक हो जायगा जैसे कि अन्य 'वाद'। किसने कहा है कि अहिंसाका 'वाद' चाहिए, क्या मैंने ? जो चाहिए वह सच्ची खरी जीवित अहिंसा ही स्वयं है, न कि 'वाद' । 'वाद' वाली अहिंसा पीली हो जायगी । अहिंसाके वादी नहीं चाहिए, अहिंसाके साधक चाहिए । __ अहिंसा मानने की चीज़ नहीं, वह करनेकी चीज़ है । क्या यह देखा नहीं जाता कि घोष अहिंसाका है, लेकिन जो इस घोषके तले चाहा और किया जाता है उसके भीतर भरी हिंसा होती है ? अहिंसाका वादी अहिंसाके विवादको लेकर जरा देरमें उग्र हिंसक हो जा सकता है । इसीलिए अहिंसाके 'वाद'के मैं उतना ही खिलाफ हूँ जितना अहिंसाके धर्मका श्रद्धालु हूँ। 'वाद' कैसा, अहिंसा तो अखंड धर्म है।
कहानी है कि एक धोबीमें और साधमें लड़ाई हो गई। मार-पीटकी नौबत आई और साधु पिट गये । पिटने के बाद वे अपने इष्टदेवके पास शिकायत लेकर पहुँचे । इष्टदेवने अपने दूतसे पूछा कि यह महात्मा हमारे लिए महात्मा हुए हैं, तुमने इन्हें क्यों नहीं बचाया ? दूतने कहा कि मैं तो बचाना चाहता था लेकिन उस वक्त मुझे पहिचान ही नहीं हो सकी कि दोनोंमें कौन धोबी है
और कौन साधु है । दोनों एक ही तरह लड़ रहे थे ! ___ अहिंसावादी अगर अहिंसासे नहीं तो क्या 'वाद' से पहिचाना जायगा ? जैसे साधुकी पहचान उसकी साधुता ही हो सकती है न कि वेष, वैसे ही अहिंसाकी पहचान आचरणसे होगी न कि कहनेसे ( =profession से)। अहिंसाका कोई वाद नहीं हो सकता। वाद-गत हो जानेपर अहिंसा मानो कर्तव्य नहीं रहती, वह केवल प्रतिपाद्य हो जाती है । अहिंसा ऐसी चीज़ नहीं है कि