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प्रस्तुत प्रश्न
क्यों नहीं करते ? साधारणतः तो यह देखा जाता है कि धनिक होते ही साधारण व्यक्तिका रुख भी बदल जाता है । वह निर्धनको नीची निगाह से देखने लगता है । क्या यह सच नहीं है कि आज मनुष्यका मूल्य उसके धनसे ही आँका जाता है ? ऐसा क्यों ?
उत्तर:- आज यह बहुत कुछ सच और संभव बना डाला गया है । आजकल आदमीकी कीमत पैसे के तालमें ही की जाती है । इसी कारण ऐसा है कि धनवान् निर्धनको हीन समझता है और निर्धन भी अपनेको नीचा मानने लग जाता है । लेकिन आज जो निर्धन है वह कभी धनवान् बन
जाय तो वह भी उसी तरह व्यवहार करने लगेगा । आदमी में अहंकारका बीज है ही । वह धनका, कुलका पढाई-लिखाईका सहारा पाकर फूल आता है । ऐसे भी आदमी देखने में आये हैं जिनके पास सम्पत्ति नहीं है, लेकिन जिन्हें आत्म विश्वास है और जो दबंग है । इसी तरह सम्पत्तिवाले लोगों में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं हैं जिनमें रीढ है ही नहीं और जो व्यवहार में निम्न दीखते हैं । इसलिए संसार में एक दूसरेके स्वार्थीका निरन्तर संघर्ष मानते हुए भी मानवता में कोई निश्चित श्रेणियाँ मानना कठिन होता है । मानें भी तो गुण और वृत्तिकी अपेक्षा उन श्रेणियों को मानना समुचित मालूम होता है, अर्थकी अपेक्षा नहीं | जैसे हिन्दू संस्कृतिका चातुर्वर्ण्य । यों तो मानवता एक और इकट्टी नहीं दीखने में आती, उसमें विभाग और छोटे-बड़े संप्रदाय - समुदाय देख ही जाते हैं । अनेकानेक बातें हैं जो उन्हें उस तरह विभक्त करती हैं । समाजवादकी श्रेणियों संबंधी धारणाका अभिप्राय यह है कि आर्थिक विभाजन ही एक और मूल विभाजन है । मुझे वैसा नही दीखता । अन्य अनेक तत्त्व हैं जो समुदायों को बनाते हैं और उनको अलग करते हैं । फिर विभाजन की प्रवृत्ति मूलतः अहंकार मेसे आती है । वह अहंकार अपनेको नाना निमित्तोंसे व्यक्त करता है । वैश्य युगमें ( औद्योगिक या industrialized युग में ) पैसेको अधिक महत्त्व मिल जाने के कारण पैसा मानवीय अहं-बुद्धि और स्पर्धाका प्रतीक-सा बना दीखता है । इसको रोकने का उपाय है अपने व्यावहारिक जीवनमें पैसेको उचितसे अधिक महत्त्व न देना | यह सीखने की आवश्यकता है ।
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आर्थिक विभाजनको मनमै गहरे बैटानेसे व्याधि भी गहरी होगी । वह इस तरह दूर नहीं होगी । क्योंकि जाने-अनजाने इस भाँति पैसेका महत्त्व मन में बढ़ेगा ही ।