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प्रस्तुत प्रश्न
तो क्या इससे यह नहीं कहा जा सकता कि स्थितिमें सुधार हो रहा है ?
उत्तर-मैं कौन कहनेवाला हूँ कि सुधार नहीं हो रहा है ? कहना तो यही है कि अमुक सिस्टममें सफलता नहीं है,-सफलता मानव-संबंधोंकी स्वच्छतामें है । सिस्टमकी सफलता अथवा असफलता उसी मापसे मापी जायगी । और आज जो सफल मालूम होता है, कल वह असफल नहीं होगा, ऐसा कहना इतिहासको देखते हुए खतरनाक है ।
प्रश्न- तो फिर 'वाद' यानी किसी सिस्टमपर सोचनेमें शक्ति लगाना व्यर्थ है ? सद्भावसे हम प्रेरित हों और एक दूसरके प्रति प्रेमका व्यवहार रक्खें, यह काफी है ?
उत्तर-बुद्धि मिली है तो उसका अनुपयोग इष्ट नहीं है । बुद्धि कुछ न कुछ सोचेगी जरूर ही । इसलिए एकदम हर 'वाद' से छुट्टी नहीं हो सकती। कहना यही है कि अमुक 'वाद' किन्हीं परिस्थितियोंकी एक विशिष्ट आवश्यकता और भावना-धाराका प्रतीक है । वह एक (बुद्धि ) प्रयोग है । उससे लाभ उठाना चाहिए, उसमें बंद नहीं हो जाना चाहिए । परिस्थितियाँ सदैव बदलती रहती हैं । कर्म और कर्म-चिंतन परिस्थितियोंके अनुकूल होगा। चिंतना-कल्पना यों तो सदा वर्तमानसे आगेकी ओर बढ़ती है । वह सीमामें सीमित नहीं रहती। इससे तत्त्व-चिंता यदि हो ही तो फिर वह अज्ञेय-सत्य ( ईश्वर ) संबंधी होनी चाहिए । हाँ, कर्म-चिंताका संबंध तो वर्तमानसे अवश्यंभावी है । वैसा न होनेसे हवाई महल (=Utopia) बहुतसे खड़े हो जायेंगे । विवाद भी बहुतेरा उठ खड़ा होगा, पर गति विशेष न होगी।
इसलिए जहाँ कर्म और कर्म-निर्णयका प्रश्न है वहाँ स्वधर्मकी अपेक्षा उसको हल करना चाहिए । नहीं तो परिणाम यह होगा कि लोग अनधिकृत बातें कहने लगेंगे, दो किताब पढ़कर बच्चा खुद गुरुको शिक्षा देना चाहने लगेगा । इसी लिए अपनी मर्यादा और अपने धर्मकी रक्षाकी बात कही जाती है।
ऐक्य-विमुख ज्ञान और कर्म व्यर्थ होता है । वैसा ज्ञान परिग्रह है और वैसा कर्म बंधन ।