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प्रस्तुत प्रश्न
अपनेसे भी बड़ी हो जाती है, उसमें अपना अहंकार खो जाता है । अन्यथा तो वह श्रद्धा : ?) अहंकार-जनित हो सकती है ।
मेरा खयाल है कि सामाजिक प्राणीकी हैसियतसे अहिंसा मानवताका एक ऐसा धर्म है, ऐसी मर्यादा है, कि उसका उलंघन लाख तर्क-प्रेरणा होनेपर भी नहीं किया जा सकता । यानी, नही करना चाहिए ।
क्या वहाँ इस अहिंसा-धर्म और उस धर्म-मर्यादाका ध्यान पर्याप्त रहा ? नहीं रहा तो क्यों नहीं कहा जा सकता कि वह श्रद्धा अहंकारिणी थी ?
प्रश्न-हिंसाका जो आक्षेप समाजवादियोंके खिलाफ किया जाता है, उसका ऐतिहासिक आधार बिल्कुल कच्चा है। उनका कार्य प्रत्यक्ष स्थितिकी कठिनाइयोंको देखते हुए जितना अहिंसक हो सकता था, उतना रहा। विरोध हिंसाका बल प्रधान वल हाते हुए इससे आधक अहिंसकताकी क्या उम्मीद की जा सकती है ? अगर वे कभी हिंसाचादी दिखाई दिये तो वह उनकी आत्मरक्षा-मात्र थी।
उत्तर-यह जानकर मुझे बहुत खुशी है। और यही मैं भी कहना चाहता है कि जो सफलता समाजवादको मिली, वह 'वाद'को तनिक भी नहीं मिली। वह सफलता तो समाजवादियोंके उत्सर्ग-भरे अहिंसक व्यवहारको ही मिली । जिस अंशमें समाज-वादियोंने अपनेको सचाईके साथ विसर्जित किया, समाजमें प्रेम विकीर्ण किया और त्यागकी भावना जगाई ठीक उतने ही अंशमें उनके प्रयत्न फल-प्रद हो सके । उसके आगे जाकर जहाँ 'वाद'का हट था वहाँ उन्हें हार ही हुई, अर्थात् उल्टा फल सामने आया । समाजके कल्याणके दृश्यके भीतरसे आँखोंके सामने अकल्याण भी फूटता हुआ दीख आया । तब यह क्यों न कहा जाय कि असलमें तो हिंसा-वादियोंकी मार्फत भी अहिंसाका सिद्धांत ही प्रकट हुआ ? उनका मंतव्य जो हो, उनके अहिंसक आचरणका सुफल निकला और जहाँ आचरणमें भी हिंसाकी गंध आ गई वहाँ ही विष-फल प्रगट हो आया ।
प्रश्न-आप कहते हैं कि सफलता उस 'वाद'को नहीं मिली। उस 'वाद'का सबसे प्रमुख सिद्धांत यह है कि व्यक्ति-मात्रको एक आवश्यक न्यूनतम (=minimum) निर्वाह-साधन प्राप्त होनेमें तथा अपनी योग्यता सिद्ध करनेका मौका मिलनेमें कोई बाधा न हो।