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प्रस्तुत प्रश्न
व्यक्तिगत आचरणमें अति-शुद्धिकी चिन्ता की जाने लगी और छूत छात तक नौबत आ गई ! उधर तापसी लोग समाज-संपर्क से दूर वनमें मोक्ष खोजने पहुँचे । यह एकाकीपनके आदर्शका खतरा, किंतु, अगर हमें दूसरी अतिशय इकट्ठे - पनकी गलती में डाल दे तो इससे भलाई नहीं होगी। दूसरी ओर हम देखते तो हैं कि इकट्ठा-पन ( = Concentration ) इतना घना होता जा रहा है कि गाँव उजड़ रहे हैं और शहर में आबादी इतनी गिचपिच होती जाती है। कि उनमें से तीन चौथाईको हवा और रोशनी अत्याधुनिक वैज्ञानिकता भी काफी नहीं दे पाती ।
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व्यावसायिक उद्योगके कारण लोग हठात् एक दूसरेके परिचयमें आये, यहाँ तक तो उसका लाभ ही है । लेकिन जिस भावनासे वे एक दूसरे के पास खिंचे, यानी स्वार्थकी भावना, वह हितकारी नहीं है । सहयोग ठीक है, तनातनी ठीक नहीं है । और जहाँ परस्पर संयोग किसी सांस्कृतिक भावनाको सामने रखकर नहीं होता, वहाँ जल्दी या देर में वह वैरका कारण हो जाता है ।
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व्यक्ति अकेला बन जाय, दूसरोंसे सब आदान-प्रदान छोड़ बैठे, यह तनिक भी मेरा अभिप्राय नहीं है । ऐसा करना प्रगतिका तिरस्कार करना होगा । लेकिन तनमें तो व्यक्ति अकेला ही रहेगा, तभी सच्चे मनसे वह मिल सकेगा । इसलिए अपनी आवश्यकताओं के बारेमें वह जितना सूक्ष्म और स्वावलंबी हो उतना ही उसे मौका है कि वह समाज के प्रति अपना अक्षुण्णदान कर सके | अकेलापन या आत्म-निर्भरता परम साध्य के तौरपर अपने आपमें इष्ट नहीं है । इष्ट है तो इसी हेतुसे है कि वह साधना हमें सेवाके अधिक योग्य बनाती है । अंत में यदि वह दूसरे के साथ सहयोग करने और उसकी सेवा करनेमें काम नहीं आती तो ऐसी हमारी आत्मसाधना आडम्बर ही है ।
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हम एक दूसरे से दूर जावें, ऐसी बात नहीं है । पर एक दूसरेके हितको ध्यानमें रखकर परस्पर पास आवें, कहने का मतलब यही है । व्यावसायिक हेतुमें कल्याण- कामनासे नहीं बल्कि मतलब साधने के खयालसे एक दूसरे को हम जानते पहचानते हैं । सांस्कृतिक हेतुकी यहीं आवश्यकता है । एक दूसरेको जाननेपहचानने की आवश्यकतासे निवृत्त नहीं हो जाना है । वह तो धर्म है । पर प्रयोजन - सापेक्ष मिलन जल्दी दुर्गंधित और मलिन हो जाता है । उस मिलने में फटके कीटाणु रहते हैं ।