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मजूर और मालिक
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और पानीकी आवश्यकताओंकी तरह स्वाभाविक न होकर उन सीमित वस्तुओंकी (खाना-कपड़ा इत्यादिकी) सीमिततासे निर्धारित होती है। तो फिर श्रमी कैसे कह सकता है कि वह भले कितना ही काम करे, किन्तु उसकी आवश्यकताएँ पूरी होनी चाहिए?
उत्तर-नहीं, नहीं आप भूल करते है। वस्तुस्थिति यह नहीं है कि धूप, हवा, पानीका सवाल कोई सवाल ही नहीं हो । सवाल नहीं होना चाहिए यह तो ठीक है, लेकिन यह सवाल अधिकाधिक होता जा रहा है, यह और भी ठीक है । यह दिल्ली है; गनीमत है कि दिल्ली ही है, न्यूयार्क नहीं है । लेकिन दिल्ली होकर भी हवा-पानीका सवाल क्या यहाँ सचमुच नहीं है ? पानीके एक नलपर यहाँ कैसी लड़ाइयाँ हो जाती हैं, क्या कभी आपने नहीं देखा या सुना ? सिर फूट गये हैं और जानोंपर आ बनी है । उसके बाद क्या आपने वे अँधेरी कोठरियाँ नहीं दखीं जहाँ चहे नहीं रहते आदमी रहते हैं ? वे कैसे रहते हैं, यह मैं नहीं जानता, लेकिन करिश्मा देखिए कि आदमी सचमुच उनमें रह रहें हैं ! कहा यही जा सकता है कि वे आदमी चूहेसे बदतर हैं। लेकिन क्या यह भी कहा जा सकता है कि वे सचमुच धूप और हवा नहीं चाहते ? और आदमीकी जान उनमें नहीं है ?
अब प्रश्न यह है कि खैर, हवा-पानीकी बात तो हल हो जायगी । क्योंकि हवा खूब है, पानी खूब है, और सबको मन-भर ये चीजें मिल सकती हैं । यह बात समझमें आती है। और इसका होना मुश्किल नहीं मालूम होता। [ अगर्ने मुझे बहुत सन्देह है कि इस बात को इतना आसान हम लोगोंने रहने दिया है !] लेकिन कपड़ा, खाना और अन्य आवश्यकताओंका निर्णय कैसे किया जाय ? ये चीजें तो आदमीकी मेहनतसे बनती हैं और इनका बना बनाया कोई खजाना भी अटूट नहीं है । इसलिये इसका निपटारा कैसे होगा ? मानिए कि मुझे जरूरत है एक सालमें सिर्फ पहननेके कपड़ेके लिए पचास सूटकी । [ मेरी यह जरूरत कम है, क्योंकि हज़ारों सूट रखनेवाले स्त्री और पुरुष बिरले नहीं हैं। ] तब क्या मुझे यह सब कपड़ा मिलेगा ? नहीं मिलेगा, तो मैं क्यों न असन्तुष्ट रहूँ और उस समाज-विधानके खिलाफ़ क्यों न द्वेष रखू और