Book Title: Prastut Prashna
Author(s): Jainendrakumar
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

View full book text
Previous | Next

Page 216
________________ २०० प्रस्तुत प्रश्न जाना चाहिए, ऊपर ऊपर रहकर तो बिल्कुल संभव है कि वह अपनेको छोटा अनुभव कर उठे, और इसी सोच में सूख जाय । लेकिन विश्वासपूर्वक अपने आपको गाड़ लेने पर वह अगर एक दिन नष्ट भी होगा, तो वृक्षके मूलको तो उपजा चुका होगा । दैत्याकार मशीन के भेदको जो समझता है वह उससे डरता नहीं है । हर मशीन की एक कल रहती है, वहीं वह कमज़ोर है । जिसने उसको समझा वह मशीनका स्वयं चालक हो जाता है । आकार के लिहाज़ से तो मशीन दैत्य है ही, और हज़ारोंको बेलाग पीस डाल सकती है । पर जिन्होंने उसका भेद पकड़ा है उनके आगे वह निरी बेबस हो रहती है । इसलिए मशीन के भेदको पाकर उसके आकारक मोहको छोड़ देना चाहिए । घरेलू उद्योग में मशीन के तत्त्वका उपयोग निषिद्ध नहीं है । सिर्फ दैत्याकारताका ( =Mass production का ) ही विरोध किया जाता है । प्रश्न - श्रद्धा और पूँजी की ताकतके बीच द्वंद्वको आपने मनुष्य और हाथी के युद्धकी उपमा दी है । तो क्या यह स्पष्ट नहीं है कि मनुष्य हाथीसे हिंसाके बलपर ही जीत पाता है ? हाँ, यह हो सकता है कि उसकी हिंसा में कुशलता भी होती है, जो क्या और भी अधिक खतरनाक नहीं कही जानी चाहिए ? उत्तर—हिंसाके बलपर आदमी हाथीसे विजय पा जाता है, यह कहना ठीक नहीं होगा क्यों कि बस चले तो क्या हाथी आदमीको बिना चीरे छोड़ देगा ? हिंसा के लिहाज़ से हाथीको हीन नहीं कहा जा सकता है। अगर वह कम है तो हिंसाकी शक्ति में कम नहीं है । मेरे ख्याल में हाथीकी हार और आदमीकी 1 जीत इसमें है कि हाथीका बल स्थूल है, आदमीका बल वैसा स्थूल नहीं है | मैं यह मानता हूँ कि मशीनका ( अर्थात् पूँजीका ) बल स्थूल है । इससे प्रेमके बलके आगे वह हारा ही रखा है । प्रेमके माने हैं सहयोग | घरेलू उद्योग सहयोगद्वारा बड़ी से बड़ी मशीनको मात कर सकते हैं । जापानकी औद्योगिक सफलताका एक राज़ यह भी है कि मशीनसे तो उसने काम लिया, लेकिन उसमें घरेलूपनको निबाहा । इससे श्रमकी कीमत ( = Labour ) वहाँ महँगी नहीं हुई और उस श्रमकी समस्या भी उतनी विषम नहीं हुई । इसीलिए सस्तेपनमें वह सब देशोंको मात कर सका । घरेलू उद्योगमें जिस बलका बीज मैं 1

Loading...

Page Navigation
1 ... 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264