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प्रस्तुत प्रश्न
जाना चाहिए, ऊपर ऊपर रहकर तो बिल्कुल संभव है कि वह अपनेको छोटा अनुभव कर उठे, और इसी सोच में सूख जाय । लेकिन विश्वासपूर्वक अपने आपको गाड़ लेने पर वह अगर एक दिन नष्ट भी होगा, तो वृक्षके मूलको तो उपजा चुका होगा ।
दैत्याकार मशीन के भेदको जो समझता है वह उससे डरता नहीं है । हर मशीन की एक कल रहती है, वहीं वह कमज़ोर है । जिसने उसको समझा वह मशीनका स्वयं चालक हो जाता है । आकार के लिहाज़ से तो मशीन दैत्य है ही, और हज़ारोंको बेलाग पीस डाल सकती है । पर जिन्होंने उसका भेद पकड़ा है उनके आगे वह निरी बेबस हो रहती है । इसलिए मशीन के भेदको पाकर उसके आकारक मोहको छोड़ देना चाहिए ।
घरेलू उद्योग में मशीन के तत्त्वका उपयोग निषिद्ध नहीं है । सिर्फ दैत्याकारताका ( =Mass production का ) ही विरोध किया जाता है ।
प्रश्न - श्रद्धा और पूँजी की ताकतके बीच द्वंद्वको आपने मनुष्य और हाथी के युद्धकी उपमा दी है । तो क्या यह स्पष्ट नहीं है कि मनुष्य हाथीसे हिंसाके बलपर ही जीत पाता है ? हाँ, यह हो सकता है कि उसकी हिंसा में कुशलता भी होती है, जो क्या और भी अधिक खतरनाक नहीं कही जानी चाहिए ?
उत्तर—हिंसाके बलपर आदमी हाथीसे विजय पा जाता है, यह कहना ठीक नहीं होगा क्यों कि बस चले तो क्या हाथी आदमीको बिना चीरे छोड़ देगा ? हिंसा के लिहाज़ से हाथीको हीन नहीं कहा जा सकता है। अगर वह कम है तो हिंसाकी शक्ति में कम नहीं है । मेरे ख्याल में हाथीकी हार और आदमीकी 1 जीत इसमें है कि हाथीका बल स्थूल है, आदमीका बल वैसा स्थूल नहीं है | मैं यह मानता हूँ कि मशीनका ( अर्थात् पूँजीका ) बल स्थूल है । इससे प्रेमके बलके आगे वह हारा ही रखा है । प्रेमके माने हैं सहयोग | घरेलू उद्योग सहयोगद्वारा बड़ी से बड़ी मशीनको मात कर सकते हैं । जापानकी औद्योगिक सफलताका एक राज़ यह भी है कि मशीनसे तो उसने काम लिया, लेकिन उसमें घरेलूपनको निबाहा । इससे श्रमकी कीमत ( = Labour ) वहाँ महँगी नहीं हुई और उस श्रमकी समस्या भी उतनी विषम नहीं हुई । इसीलिए सस्तेपनमें वह सब देशोंको मात कर सका । घरेलू उद्योगमें जिस बलका बीज मैं
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