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प्रस्तुत प्रश्न
प्रश्न-राज्यके नौकर होनेमें आप कोई गलती नहीं मानते। अफसरी मनोवृत्ति जो नौकरशाहीमें होती है उसीको आप अनुचित' मानते हैं। फिर क्या नागरिक शिक्षाका ठीक ठीक प्रचार होनेसे एक राष्ट्रमें ऐसे राज्यके नौकर नहीं बन सकते जो अपनेको जनसेवक मानें ?
उत्तर- क्यों नहीं बन सकते ? ज़रूर बन सकते हैं । और वैसी कोशिश ' होती रहनी चाहिए। . प्रश्न-फिर राज्यके हाथ सब उद्योगोंका स्वामित्व होनेमें आपको क्या आपत्ति है ?
उत्तर-उसमें खराबी यही मुझको दीखती है कि उद्योग केन्द्रित होनेकी ओर झुकेंगे । केद्रित न हो तो स्टेटके हाथमें उद्योगोंके रहने का कोई अर्थ ही नहीं है । उद्योग केन्द्रित हो जायेंगे तो उनकी उपज और खपतमें फासला बढ़ेगा जिसको भरनेके लिए बिच-भइयोंकी (middle men की ) जमात खड़ी होगी। मिडिलमैनका श्रम उत्पादक श्रम नहीं होता, फिर भी, वस्तुके मूल्यपर उस व्यापारीके मुनाफेके हिस्सेका काफी बोझ पड़ता है । साथ ही उत्पादन और खपतमें जब फासला बढ़ने लगता है तब और प्रकारके शोषण भी शुरू होने लगते हैं । मिल-मालिकोंका सार्वजनिक हितसे अलग कुछ विशिष्ट ही स्वार्थ होने लग जाता है। जरूरत-मंदकी जरूरतें पूरी करनेमें नहीं, बल्कि उनको बढ़ानेमें उन्हें अपना स्वार्थ दीखने लगता है । वे जनताका हित नहीं देखते, पूँजीका हित देखते हैं । केंद्रित उद्योगसे मानव और मानवके बीचके शोषणके सम्बन्धको मजबूत ही बनाया जा सकता है । स्टेटके हाथमें उद्योग दे दनेसे यह समस्या कहाँ हल होती है ? तिसपर दुनिया अभी राष्ट्रोंमें विभक्त है । वह समूची एक स्टेट तो है नहीं । इस तरह मशीनसे बहुत माल तैयार करनेवाली स्टेट जरूरी तौरपर उस मालको खपाने के लिए मंडीकी जरूरतमें हो रहेगी। दूसरे शब्दोंमें वह आर्थिक दासता उत्पन्न करेगी । उसे उपनिवेशकी माँग होगी जहाँसे कच्चा माल उन्हे मिले और जिसके सिरपर पक्का माल थोपा जा सके । और यही क्या साम्राज्यशाहीका ( =Imperialism का) आरंभ नहीं है ? .
प्रश्न-अगर उद्योग स्टेटके हाथमें नहीं, तो वे कुछ इनेगिने पूँजीपतियोंके हाथमें होंगे जो अपने पूँजीके वलपर स्टेटको हमेशा