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औद्योगिक विकास : शासन-यंत्र
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देखता हूँ वह यही है । उसमें सबका पारस्परिक संपर्क बना रहता है और बढ़ता है, और परस्परके हित विरोधी न बनकर बहुत कुछ एकत्रित होते जाते हैं । यह बल बृहदाकार मशीनमें ( =Large Scale Production में ) नहीं है। उससे परस्परका सद्भाव कम होता है और स्पर्धाके बीज बोये जाते हैं। उसमें विनाश (=Disintegration) छिपा हुआ है । मशीन का वह बल भी अबल है, जैसे कि हाबीकी देहका डील ही उसका अबल हो जाता है। __ मशीनकी सफलता भी तो तभी दीखती है कि जब सैकड़ों हज़ारों आदमी एकत्रित भावसे वहाँ काम करते हैं । मैं यही कहना चाहता हूँ कि वह हजारों आदमियोंका एकत्रित भाव वहाँ सजीव नहीं हो पाता । वे रहते तो पास पास हैं, पर मन उनके आपसमें फटे रहते हैं । इतना ही नहीं, वे भीतरसे एक दूसरेकी काटमें रहते हैं । मेरा कहना यह है कि मनुष्योंमें वैसी स्थूल एकत्रता हो चाहे न हो, पर उनमें सजीव ऐक्य होना चाहिए । कृत्रिम एकत्रताके बलसे हार्दिक ऐक्यका बल हर लिहाज़से प्रबल दिखलाई देगा, इसमें मुझे रंचमात्र शंका नहीं है । इस भाँति घरेलु उद्योगसे उत्पादनके कम हो जाने की आशंका भी नहीं रहती। और सच यह है कि व्यर्थ उत्पादन अगर कम हो जाये तो इससे संस्कृति और सभ्यता और ज्ञान-विज्ञानका भला ही होगा । क्यों कि मानवताकी व्यर्थ उत्पादनके कामसे बची हुई शक्ति ज्ञान और विज्ञानकी साधनामें लगेगी। समस्याएँ हमारी कम होंगी और मालूमात बढ़ेगी।
प्रश्न-अगर केंद्रित थोक उत्पादनको (=Centralised mass protluction को ) आप त्याज्य मानते हैं तो विज्ञानके लिए क्या अवसर (='cope ) रह जाता है ?
उत्तर -विज्ञान पूँजीके जूएसे खुल जानेपर निकम्मा और आवारा हो जायगा, ऐसी आशंका करना विज्ञानका अपमान करना है। आशा करनी चाहिए कि विज्ञान अपनेको इससे ज्यादह जानता है । वैज्ञानिक अपने योग्य करनेके कामको पूँजीपतियोंसे और डिक्टेटरोसे पायेंगे नहीं तो वे बेकार रहेंगे, ऐसा समझना मानो वैश्यको ब्राह्मणके ब्रह्मज्ञानका मालिक बना देना है। इस भयका कोई कारण नहीं है । और अगर आज विद्यागुरु ब्राह्मण वैश्यका आश्रित बना हुआ है तो यह स्थिति अप्राकृतिक है । ज्ञान-विज्ञान राष्ट्रोंकी लड़ाईको अधिकाधिक बीभत्स बनानेके अलावा और किसी दूसरे काममें आ