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औद्योगिक विकास : शासन-यंत्र
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दबाये रक्खेंगे और राष्ट्रको उनके इशारेपर नाचना होगा । क्या यह स्टेटके हाथमें उद्योगोंके केंद्रीकरणसे भी अधिक जोखिमकी स्थिति नहीं है ?
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उत्तर – हाँ, अगर मशीन के मोहको न छोड़ा गया तो ऐसा होगा ही । पूँजी वादका अगला परिणाम है स्टेटवाद | वह समाजवादके (Socialism) नामपर हो, कम्यूनवाद के नामपर या फासिज्मके नामपर स्टेट-वाद आतंकवाद ही है ।
आतंक वहाँ अव्यवस्थित और बचावका साधन ( = Defensive ) न रहकर सिद्धान्तगत एवम् सुव्यवस्थित हो जाता है । स्टेटका देव ( = Diety ) युद्धकी पूजा माँगता है । उपाय मुझे एक ही मालूम होता है । वह है Economic Decentralization अथवा घरेलू उद्योगों का उद्धार ।
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प्रश्न – इच्छासे हो जानेवाली बात श्रद्धा और दूसरी ओर पूँजीकी ताकत श्रद्धा ठहर सकती है ?
तो यह है नहीं । एक ओर इस विपम मुकाबले में क्या
उत्तर—क्यों नहीं ठहर सकती ? पूँजीकी ताकत जब बहुत बड़ी दीखती है तब उस ताक़तकी कमजोरी भी सामने आ जाती रही है । आज क्या दुनिया समस्याओं से परेशान नहीं है ? क्या वह युद्धके किनारेपर ही नहीं खड़ी है ? युद्ध की भीषणता किससे छिपी है ? हाँ, यह ठीक है कि चोट खाने से पहले सबक सीख लेना मुश्किल है । टूटने से पहले मोह मोहक ही होता है । आज हाथी आदमीके काम आता है । उनमें पहले युद्ध क्या नहीं हुआ होगा और क्या आदमी उस युद्ध में नहीं जीता होगा ? आदमी जिस बलसे हाथीसे जीत सका और हाथी जिस बलके रहते हुए भी हार सका, अंत में उन्हीं दोनों बलोंका अंतर ही वहाँ भी पल्ली - शिल्पका सहारा होगा । मशीनका अपना ज़ोर ही उसे ध्वंसतक ले जायगा । इसके माने यह नहीं कि केवल विश्वासकी रटसे काम चलनेवाला है । अभिप्राय यही है कि श्रद्धायुक्त स्वल्पारंभ छोटी चीज़ नहीं है । बीज गड़ चलना चाहिए और उसको सिंचन मिलना चाहिए । फिर तो दरख्त के बड़े होने में कोई अचरजकी बात नहीं है । यह आक्षेप कि बीज छोटा है वृक्षकी विशालताको रोक नहीं सकता । इसलिए दूसरे को तो अधिकार भी हो कि वह बीजको छोटा माने, स्वयं बीजको यह अधिकार नहीं है कि वह अपनेको क्षुद्र माने । उसे मुँह दाबकर धरती में पैठ