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प्रस्तुत प्रश्न
मशीन आई, वहाँ थोड़ी जमीनसे काम भी नहीं चलता। इस तरह, किसीके पास बहुत अधिक जमीन होनेसे उसे आवश्यक रूपमें मशीन सूझती है और जो मशीन पा लेता है उसे बहुत जमीन हथियानेकी सूझेगी। इससे रागद्वेषका चक्कर तीव्र होगा और समाजमें विषमता बढेगी। इसलिये यंत्र भी वैसा ही उपकारी है जिसके चलानेमें किसीको मालिक और किसीको दास न बनना पड़े, अर्थात् जिसे एक आदमी सँभाल सके और एक परिवार जिसका पेट भर सके ।
प्रश्न-अगर यंत्रके उपयोगके इस बंधनको मंजूर कर लिया जाय, तो अवश्य ही खेतीमें हमें प्रकृतिकी मेहरबानीपर निर्भर रहना पड़ेगा और हर वर्ष किस्मतको और भगवानको रिझाने या कोसनेके सिवा कोई मार्ग खुला नहीं रहेगा। जव कि हम यह जानते हैं कि यंत्रोंकी सहायतासे हम परिस्थिति पर काफी नियंत्रण रख सकते हैं, तो ऐसी स्थिति में, हमें या तो प्रकृतिके सहारे नैया छोड़ देनी चाहिए या यंत्रात्मक कृषिसे आनेवाली इन बुराइयोंको मंजूर करना चाहिए । इनमेंसे कौन-सा मार्ग आप श्रेयस्कर समझते हैं ?
उत्तर-नहीं, किसानके हाथमें या तो बड़े ट्रैक्टर ही दें, या नहीं तो उसे भाग्यवादी बना दें कि संकट आनेपर वह हाथपर हाथ धरे बैठा रह जाय : ये ही दो मार्ग हैं, ऐसा मैं नहीं मानता । मेरा मतलब यह नहीं है कि हम सार्वजनिक सहयोगसे कुछ काम कर ही न पाएँ । मैं तो यह मानता हूँ कि सार्वजनिक आवश्यकताओंके लिए सार्वजनिक प्रयोग (=measures ) होंगे और सम्मिलित भावसे प्रकृतिकी अकृपासे लड़नेके लिए उद्योग भी भरपूर होगा। ऊपर महा यंत्रका जो विरोध है, उसका आशय केवल यह है कि उसे मनुष्य
और मनुष्यके बीच बाधा बनकर घुसने न दिया जाय । किसान और किसानके परिश्रमके बीच जब कोई बहुत बड़ा यंत्र आ जाता है, तो वह किसान अपने श्रमका मालिक नहीं रहता, वह लगभग अपने ही परिश्रमका मजदूर बन जाता है। और ऐसा होते ही नाना प्रकारके शोषणकी संभावनाएँ समाजमें पैदा हो जाती हैं । मेरा आशय है कि श्रमी अपने श्रमका मालिक हो । जो मशीन वह चलाए उसका भी वह मालिक हो। जब मशीन आदमीकी मालिक होने लग जाती है, और अधिकतर महायंत्रोंके व्यक्तिगत प्रयोगमें ऐसी ही स्थिति हो जाती है.तब मशीन मानवी न होकर दानवी हो जाती है। मैं यह नहीं समझ पाता कि