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प्रस्तुत प्रश्न
नहीं रही होगी । यों भी कह सकते हैं कि निष्ठाकी परिपूर्णतामें ही कुछ कमी रह गई होगी । तिसपर कार्य कोई अस्पृहणीय हो सकता है, पर निष्ठा तो किसी भी हालतमें अनुचित नहीं कही जा सकती । शक्तिका उपयोग यदि गलत किया जाता है, तो वह शक्तिके विरुद्ध प्रमाण नहीं है। बिजली छनेसे आदमी मर जाता है, तो क्या बिजलीको फाँसीकी सजा दी जा सकती है ? मेरी मान्यता है कि अपने भीतरकी मन-बुद्धिकी एकता ही उत्तरोत्तर व्यक्तित्वकी शक्तिके रूप में व्यक्त होती है।
प्रश्न-वह शक्ति जीवनके विभिन्न उपयोगोंमें प्रयुक्त की जा सकती है, लेकिन क्या आप उसके विशिष्ट रूपसे एक ही ओरसे प्रयोग किये जानेके पक्षमें हैं ? __उत्तर-प्रयोगका रूप दो बातोपर आश्रित है : (१) उस अंतरंग शक्तिकी घनता और परिमाण, (२) परिस्थितिकी माँग ।
उस प्रयोगमें फिर जो इष्ट और अनिष्टका भेद होता है, वह अधिकांश उसके सामाजिक फलकी दृष्टिसे चीन्हा जाता है । अतः वह आपेक्षिक है । तत्कालका निर्णय कुछ हो सकता है, इतिहासका कुछ और ।
प्रश्न -मैं जो जानना चाहता हूँ वह यह है कि व्यक्तित्वकी पूर्णताकी रक्षाका विचार रखते हुए और उधर समाजके हितका भी, क्या वह जिसे हम विशेषज्ञता (Specialization) कहते हैं इष्ट है ?
उत्तर-एक हद तक ।
जैसे कि कल ही हमें घरमें बीमार बच्चे के लिए डॉक्टरने बताया है कि उसमें कैल्शियमकी कमी है । इलाजके लिए इसलिए ऐसे पथ्य और ओषधिकी तजबीज की गई है, जिसमें कैल्शियमका भाग ज्यादा हो । अनुमान कीजिए कि आजकी भाँति उसके स्वस्थ हो जाने के बाद भी कैल्शियमवाली खूराक जारी रखी जाती है। तो क्या यह संभावना नहीं हो सकती कि उससे हितके बजाय अनहित होने लगे?
'विशेषता' ( Specialization ) में भी ऐसा होता देखा जाता है । आरंभमें तो विशेषतावाला ज्ञान उपयोगी होता है, उससे दृष्टि प्रशस्त होती है। लेकिन फिर वह एक बंधन और परिग्रह होने लगता है। दृष्टिकोण उससे सीमित हो रहता है। याद रखना चाहिए कि जीवन एक प्रबाह है। वह निरन्तर विकास है । मूल्य कहीं भी कोई बँधे हुए नहीं हैं । विशेषज्ञों अतिवाद आने लगता है और यथावश्यकताकी समझ मंद पड़ जाती है। बुद्धि उसकी जैसे विश्रामके लिए सहारा पा लेती है और वह रुक जाती है।