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प्रस्तुत प्रश्न
कौन हममेंसे नहीं जानता कि एक दिन सबको मरना होगा ? यह जानकर भी हम कर्मसे न चूकें, यही तो जीवनकी सार्थकता है । नहीं तो मौत की तरफ से अपनेको भुलावेमें रखकर हम जीयेंगे तो अंत समय पछतावा ही हाथ लगेगा और घोर प्रतिक्रिया होगी ।
पर हम खुदको इतना महत्त्व क्यों दें कि यह ध्यान करते ही हमारा दिल बैठने-सा लगे कि कभी हम नहीं रहेंगे ? समयका प्रवाह अनन्त है । वह चलता ही रहता है, चलता ही रहेगा । लाखों आये, लाखों गये । उन सबने ही किन्तु अपना जीवन जीया और कर्म किया । समयके अनन्त प्रवाह में वह कर्म-फल नगण्य - सा चाहे लगे, फिर भी उन सबका जीवन निरर्थक नहीं था । वैसी निरर्थकताका बोध हमें कभी डसने को आता है ही । पर उस निरर्थकता के बोधसे उद्धार हमें झूठ अथवा छलके बलसे नहीं मिलेगा । श्रद्धा के बल ही हम उससे उबर सकेंगे ।
प्रश्न - ऊपर भाग्य अथवा महासत्ताकी बात कही है । ऐसे शब्दोंको मानव व्यापारके बीच लाकर क्या बहुत कुछ जड़ता और विषमता नहीं फैलाई गई है ?
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उत्तर- - उन शब्दों के पीछे जो सचाई इंगित है उससे अपनी चेतनाको तोड़कर अलग कर लेने और फिर उन निर्जीव रह गये हुए शब्दोंका अविवेकपूर्वक उपयोग करने से ही वह दुष्परिणाम होता है ।
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श्रद्धा कभी भी बुरी चीज़ नहीं है । लेकिन श्रद्धाका लक्षण ही यह है कि वह श्रद्धेय और श्रद्धालुक अंतरको बराबर कम करती है । जो उन्हें उत्तरोत्तर अभिन्न न करे वह श्रद्धा ही नहीं है ।
जो अज्ञेय है वह इसी कारण क्या हमसे भिन्न है ? यों क्या हमारे भी भीतर कुछ अज्ञेय नहीं है ? अज्ञेयका आतङ्क मानकर भी यदि हम इसी भाँति उसके समीप आये तो कुछ हर्ज नहीं । हर्ज तो पार्थक्य में है। चाहे वह पार्थक्य अश्रद्धाका न होकर मात्र उदासीनताका ही हो। इसलिए सत्य सदा सदा अज्ञेय बना रहेगा; यह जानकर भी मैं मानता हूँ कि वह सदा अधिकाधिक जानते रहने और पाते रहने के लिए है । वह सुप्राप्य नहीं है, इसीलिए तो खोज और भी अटूट होनी चाहिए ।
यहाँ 'अज्ञेय' का अर्थ भी स्पष्ट करें । क्या बूँद समुद्रको जान सकती है ? वृक्ष