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प्रस्तुत प्रश्न
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है या नहीं कि मानव-व्यक्ति भौतिक तृष्णाओं पर ही चलता है । माँ बेटे को क्यों पालती है ? मित्र मित्रको मित्र क्यों मानता है ? शहीद क्यों शहीद हो जाता है ? उत्सर्ग और त्यागके उदाहरण क्यों देखने में आते हैं ? मैं और आप क्यों एक दूसरे से इस समय झगड़ नहीं रहे हैं ? आदि आदि बहुतसे ऐसे प्रश्न हैं जो मेरे लिए यह मौका नहीं छोड़ते कि मैं भौतिकताको जीवनकी पहली और अन्तिम प्रेरणा मान लूँ | बल्कि प्रति-क्षण मुझको यह मालूम होता है कि मनुष्य और मनुष्य-समाज जाने-अनजाने अनिवार्यतया भौतिकता के काबूसे ऊँचा उठता जाता है और वह जितना ही ऊँचा उठता है उतना ही अपनी मनुष्यताको सार्थक करता है । पशुताका कानून ही जिसके लिए कानून है, वह मनुष्य भी कैसा है ? वह निरा पशु है और निरा पशु कोई मनुष्य हो नहीं सकता ।
मानव-समाजकी समस्याओंको भौतिक आधारपर समझना और खोलना मेरे खयाल में इसी हेतुसे अपर्याप्त समझा जा सकता है कि मनुष्य केवल भौतिक नहीं हैं । उसमें आत्मा भी है । उसमें प्रेम देने और प्रेम पानेकी माँग भी है। वह विचार धारा, जो मानवताके उस मूल गुणको बिना ध्यान में लाये मानव-दुःखों का निपटारा करना चाहती है, केवल अपनेको भुलावा दे रही है ।
मानव भौतिकतामें बंद नहीं है, इससे उसकी समस्याएँ भी भौतिक बुद्धिद्वारा नहीं खुलेंगीं । वह केवल विज्ञानसे नहीं खुलेंगीं, - उस विज्ञान में सच्चे जीवनका योग भी देना होगा । - सच्चा जीवन यानी निःस्व समर्पणका जीवन ।
प्रश्न- 'पशुताके कानून' से आपका क्या मतलब है ? उसमें और मनुष्यके कानूनमें मूल अन्तर क्या है ?
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उत्तर - यों तो पशु और मनुष्य में बहुत अंतर नहीं है; फिर भी जो अन्तर है वह एक बात को स्पष्ट कर देता है । वह बात यह कि पशु अपने समूह - गत व्यक्तित्वको नहीं समझता दीखता । मनुष्य अपने साथ-साथ परिवारको, जातिको, समाजको भी मानता है । इस लिए पशु-बर्तावकी नीतिको 'पशु-बलकी नीति कहा जा सकता है । जिसमें ताक़त है वह विजयी होगा, जो कमज़ोर है उसे खा डाला जायगा । वहाँ एकका अपनापन ही उसके लिए पहला और अंतिम विचारणीय विषय है | मनुष्य ऐसे आचरण नहीं कर सकता, क्योंकि वह लाचार है कि अपने से बड़ी किसी सत्ताको माने | इसलिए उसके वर्तनकी नीति