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औद्योगिक विकास : मजूर और मालिक
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मौज विलासकी चीजें, उनकी ओर जबरदस्ती रुचि पैदा की जाती है। तभी तो ऐसे लोग भी होने लगे हैं जिन्हें चाहे खानको न मिले परंतु जिनका साज-सँवारकी कुछ वस्तुओंके बिना फिर भी काम नहीं चल सकता । तब प्रश्न होगा कि
औद्योगिक विकासका उचित रूप क्या हो ? मैं समझता हूँ, उद्योगमें अब विकीरण (=Decentralization ) शुरू होना चाहिए । इसका मतलब है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनेसे उद्योग आरंभ कर दे; यानी, जहाँ तक मुझसे बने मैं अपनी पार्थिव ज़रूरतोंका बोझ दूरके लोगोंपर न डालू। इससे पड़ोसी-प्रेम पैदा होगा और शोषण घटेगा । उद्योगका यह सच्चा विकास है । एक जगह इकडे होकर जो पाँच हजार लोग एक जैसा काम करके जितना उत्पादन कर सकते हैं, वे पाँचों हजार आदमी अगर उतना ही श्रम अपनी जगह रहकर करना आरंभ करें तो भी मशनि न होनेपर भी, मैं समझता हूँ, उत्पादन कम नहीं करेंगे । इस तरह उत्पादन, कुछ बढ़ ही जायगा कमेगा नहीं । और अगर तौलमें वह उत्पादन कुछ कम भी हो, तो भी समाजका सुख चैन तो उससे बढ़ेगा । यह भी ध्यानमें रखना चाहिए कि मजदूर स्वाधीन भावसे उद्यमी होकर मजदूर नहीं रहता, यानी वैसे अपनी बुद्धि का विकास भी करता है । साथ ही उसके परिवारके छोटे-बड़े सभी सदस्य उसके काममें हाथ बँटा सकते हैं,-उत्पादन में भी और उद्योगके विकासमें भी उसके सहायक हो सकते हैं। उनकी उत्पादन-शक्ति अन्यथा बेकार जाती है ।
प्रश्न यह जरूर है कि क्या मजदूर अपने घरपर करने के लिए कुछ काम पा भी सकता है ? वर्तमान परिस्थिति बेशक उलझी और पेचीदा है । आज तो उद्यमसे न घबरानेवाला आदमी भी अपने गाँवको उजाड़ कर मिलमें मजूर बननेको लाचार होता है । किन्तु इसका मतलब यही है कि रोग गहरा है और उपाय भी तीखा होगा। ___ सच्चे औद्योगिक विकासारंभका उपाय यही है कि हम जीवनकी स्थूल आवश्यकताओंके बारेमें अधिकाधिक स्वावलम्बी बननेकी कोशिश करें । घरेलू और देहातके उद्योगोंको, जो अब लुप्तप्राय होते जा रहे हैं, बल पहँचाएँ और उन उद्योगोंको संगठित करें । यानी शहरसे तोड़कर गाँवकी ओर हम अपनेको ले जायँ । इसका यह मतलब नहीं कि गाँवमें शहरियतको ले जायँ । नहीं, शहरीपनको एकदम शहरमें ही छोड़ दें और देहाती बनकर देहातमें ही अपना समूचा जीवन मिला दें । मैं नहीं मानता कि देहातमें सांस्कृतिक वृत्तियाँ भूखी