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क्रान्ति ः हिंसा-अहिंसा
भोली जनता प्रायः कुछेकके हाथका खिलौना ही रही और रहती है।जब जनता कुछेकके हाथका खिलौना है और उसे प्रबुद्ध करनेका तो क्या उस तक पहुँचनेका भी मौका नहीं है, वैसी अवस्थामें क्या उसके प्रवुद्ध होनेतककी प्रतीक्षा की जाय ? अथवा अन्य साधनोंके द्वारा, कृट-नीति और पाशविक वलका प्रयोग करके भी, उन कुछेक व्यक्तियोंहीको अपने मार्गसे पहले साफ़ किया जाय?
उत्तर-जनता तक पहुँचनेका मौका नहीं है, इसका क्या मतलब ? क्या इसका यह मतलब है कि बाहरी प्रतिबन्ध ऐसे लगा दिये गये हैं ? तब तो सवाल यह हो जाता है कि हममें लगन कितनी है ? कुछ हो, स्वधर्मको नहीं छोड़ा जा सकता । हमारे भीतर अगर उत्कट लगन है और जनता तक पहुँचे बिना मानो जीवन ही हमारे लिए भार-स्वरूप जान पड़ता है, तो स्पष्ट है कि वे कृत्रिम प्रतिबंध हमें रोक न सकेंगे। रोकेंगे भी तो पाशविक बलसे और केवल शारीरिक अर्थमें रोक सकेंगे। यह सत्याग्रहका रूप हुआ । पाशविक बलका जवाब उसी बलसे सत्याग्रही नहीं दे सकता, लेकिन खुल्लमखुल्ला वह उस बलकी असत्यता स्वीकार करता है और सविनय भावसे उन कृत्रिम प्रतिबंधोंकी अवज्ञा करता है । यह स्वयंमें जनताके लिए आत्म-प्रबोधक बात होगी । जब यह ( सत्याग्रहका ) मार्ग सदा खुला है, तब किसी प्रकारके पाशविक और कूट-नीतिके उपायोंसे काम लेनेका प्रश्न ही कहाँ उठता है ? वह स्थिति असंभव है जहाँ सच्ची लगनवाले पुरुषके लिए मार्गका अभाव हो । लगन ही मार्ग निकाल देती है । यह कहना कि मानवताके मार्ग तो सब ओरसे बन्द हैं और परिस्थितियोंका दबाव बेहद है, इसलिए चलो, इस पशुताके मार्गपर ही चले चलें, हीन-विश्वासका द्योतक है। मामूली तौरपर बुराईका मुकाबला मुश्किल मालूम होता है । इसीलिए बुद्धि उस मुकाबलेसे तरह तरहसे बचनेके मार्ग सुझाती है । हिंसक नीतियों वैसे ही एक प्रकारसे बुराईसे युद्ध करनेके बजाय उससे बच निकलनेकी रीतियाँ हैं । गुप्त (='ecret ) संगठन आदिकी सूझ भी बहुत कुछ इसी बचनेकी वृत्ति से प्राप्त होती है । इसलिए उपाय सचाईकी तरफ़ सीध चलने और इस प्रकार बुराईको सीधी चुनौती देनेका है । सीधी चुनौती,-यानी उसका सीधा वार अपनी छातीपर लेनेकी हिम्मत ।