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प्रस्तुत प्रश्न
अपेक्षा, देखें तो यही कहना उचित होगा । अन्यथा शुद्ध निश्चयात्मक दृष्टिसे उनमें सर्वथा द्वित्व नहीं माना जा सकता। निश्चयमें तो सब कहीं एक ही लीला है । और जड़-चेतनका मेल अनादि-अनंत है, द्वित्व मायामें ही है।
प्रश्न-तो क्या व्यवहार दृष्टिसे हम यह भी मान सकते हैं कि हम और हमारे आदर्शके वीचमें परिस्थितियाँ एक फासला डालती है ?
उत्तर-हाँ ।
प्रश्न-तो क्या यों कहें कि मानवका कार्य-व्यापार केवल उन परिस्थितियोंके प्रतीकारके लिए है ? परिस्थितियाँ हटीं कि आदर्श फिर प्राप्त है ?
उत्तर-नहीं, यह कहना ठीक नहीं । थोड़ी देरके लिए यो समझिए कि मैं दिल्ली में रहता हूँ, और मुझे कलकत्ते पहुँचना है । कलकत्ता पहुँचने के लिहाजसे मेरा दिल्ली छोड़ना उचित है । दिल्ली में रहनेका मोह कलकत्ता पहुँचने में बाधा है । पर दिल्लीके अपने जीवनकी परिस्थितिको एकाएक मैं गाली देने लगें, इससे कलकत्ता पहुँचनेमें कोई सहायता नहीं प्राप्त होगी । मैं कह सकता हूँ कि दिल्लीकी परिस्थिति इस अंशमें मेरी सहायक हुई है कि वह मुझे कायम रक्खे हुए है । कलकत्तेकी यात्राके लिए सम्बल मुझे दिल्लीकी स्थितिमेसे ही जुटेगा। उस स्थितिसे एकदम अलग होकर मेरी संभावना ही नष्ट हो जाती है ।
अर्थ निकला कि हरेक स्थितिकी अपनी कुछ मर्यादाएँ हैं । वे मर्यादाएँ इस लिहाजसे अत्यन्त आवश्यक और उपादेय है कि मर्यादाओंके नितांत अभावमें कोई स्थिति संभव ही नहीं हो सकती। किन्तु जीवन स्थितिका नहीं, निरन्तर गतिका नाम है । इसलिए कोई स्थिति यदि गतिका अभिनंदन करनेको तैयार नहीं है, तो वह जीवन-विरोधी आर बाधा-स्वरूप हो जाती है। __ अब यहाँ दिल्लीसे वहाँ कलकत्ता तक सड़क भी बनी हुई है। दिल्ली-कलकत्तेमें कितना फासला है ? कहा जायगा कि ठीक उतना ही जितनी लम्बी वह सड़क है । तो यह कहना क्या एकदम झूट है कि वह सड़क दिल्लीसे कलकत्तेको उतनी ( कहिए हज़ार मील) दूर बनाये हुए है ? भाषाके प्रयोगके लिहाजसे यह कथन अशुद्ध नहीं है । लेकिन यह भी उतना ही सच है कि वह ही सड़क दिल्ली और कलकत्तेके उस फासलेको मिलाये भी हुए है । अगर सचमुच कलकत्ता