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व्यक्ति और परिस्थिति
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आप कैसे करें । हम तो कालमें ही हैं न ? हमारी चेतना कालकी परिघि पाकर ही जी पाती है । अन्यथा, क्या वह सहमकर मूञ्छित और मृत-प्राय ही न हो जाय ?
प्रश्न-यदि विकास हर समय है, तो संसार या संसारकी आधारभूत सत्ताका कभी क्या कोई अपना स्वरूप निर्धारित (Tric() किया जा सकता है ? या तो हम कहें कि विकास किसी एक अवस्थासे आरम्भ होता है, और आगे आगे बढ़ता जायगा।या कि वह स्वयंमें एक चक्कर लगाता है और उन्हीं अवस्थाओंसे बार बार संसार गुजरता है। किन्तु पहली बातसे तो विकासका सर्वकालीन होना असिद्ध रहता है क्योंकि उसका आरम्भ मान लिया जाता है। और दूसरी अवस्थामें भी विकास सर्वकालीन नहीं रहता क्योंकि उसमें पुनरावृत्ति आ जाती है।
उत्तर-विकास मानव-सापेक्ष शब्द है । मूलतत्त्व काल है । काल अर्थात् गति और परिवर्तनका आधेय । चारों ओर हर घड़ी सब कुछ बदलता हुआ हमें दीखता है । इस बदलने और चलनेमें बुद्धि फिर कुछ अभिप्राय भी देखना चाहती है । विविधताको एक रूपमें देख सकनेकी शक्ति ही बुद्धिकी साधना कहलाती है । 'विकास' शब्द मनुष्यकी उसी बौद्धिक साधनाका परिणाम है। हम वत्तमानमें रहते हैं, पर इतिहासद्वारा अतीतम भी पैठते और उसका रस लेते हैं। उस बीते अतीत और आजके वर्तमानमें हम संगति बैठाते हैं । अनन्तर उसके आधारपर भविष्यकी धारणाको भी हम खड़ा करते हैं । पर हम ही कहते हैं कि अतीत व्यतीत हुआ, और वर्तमान आ गया। भाषाका यह प्रयोग एक लिहाजसे ठीक भी हो, पर इस बीचका इतिहास व्यर्थ ही नहीं गया। वह सार्थक है। उसी साथकताका नाम मनुष्यने रक्खा है 'विकास'। विकास इस भाँति एक सिद्धांत है । आस्था-बुद्धिसे कहें, तभी उसे 'सत्ता' कह सकते हैं । पर अगर आप उस शब्दसे आगे बढ़ना चाहें तो वह भी हो सकता है । आगे बढ़कर तो कह सकते हैं कि कैसा विकास और कैसा कुछ और,--यह सब तो लीला है, किसी एक अव्यक्तका खेल है। असलमें जिसको 'काल' कहो, जिसको 'विकास' कहो,-वे सब हमारी ही परिमित चेतनाके गढ़े हुए शब्द हैं । वे मायासे बाहर कहाँ हैं ? मायाहीन सत्यमें जाकर फिर सचमुच विकास कहाँ ठहरता है ?