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जीवन-युद्ध और विकास-बाद
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प्रश्न-Survive करनेमें संघर्ष, बल और विजयका भाव अपेक्षित है। और जहाँ स्थूलके विरुद्ध सूक्ष्मको प्रबल देखते हैं, वहाँ बल (=Power) और विजयका (=Controlका) भाव तो वैसा ही बना रहता है, उसे आप किसी तरह भी कम क्यों मान लें ? इसलिए उस स्थलसे सूक्ष्मकी ओरके विकासको आप हिंस्रतासे अहिंस्रताकी ओर, चाहे वह सापेक्षिक ही सही, कैसे मान रहे हैं ? तब क्या आप मानते हैं कि एक सरल सीधे ग्रामीण मज़दूरसे एक चालाक छली बनिया अधिक नैतिक है ? यदि दो चालाक बनियोंमें ही विरोध हो जाय, तो क्या उनमेंसे अधिक चालाक होकर जीतनेवाले बनियको आप अधिक नैतिक कहेंगे?
उत्तर-आपका Survive शब्द चक्कर में डाल सकता है । पेड़की आयु ज़्यादा है, मनुष्यकी आयु थोड़ी है। कह सकते हैं कि वृक्ष मनुष्यको Survive करता है । लेकिन क्या वृक्षको मनुष्यसे ऊँचा ठहराया जा सकता है ? __ आपके दूसरे उदाहरणको थोड़ा और स्थूल बनाकर पकड़ें । समझिए कि पत्थर है और साँप है ! पत्थरमें हिंस्र-भावना नहीं है । माना जाता है कि साँपमें हिंस्र भावना है । तो क्या पत्थर नैतिक है और साँप अनैतिक ? __ असल और मुख्य बात चैतन्य है । विज्ञानक ( अथवा बुद्धिके ) आरंभमें ही जो पहला द्वैत उपस्थित होता है वह है जड़ और चेतन । चेतनाको शर्तके तौर पर स्वीकार करनेके बाद ही नैतिक अथवा अनैतिकका प्रश्न उठता है । जहाँ चैतन्य ही हीन है, वहाँ नीति अथवा अनीतिकी संभावना भी हीन हो जाती है। जड़ वस्तुमें न नीति है, न अनीति है । क्योंकि वह व्यक्ति नहीं वस्तु है । आपकी कठिनाई यह मालूम होती है कि विकासको जब आप स्थूलसे सूक्ष्मकी ओर स्वीकार कर सकते हैं, तब उसे आवश्यक रूपमें हिंसासे अहिंसाकी ओर माननेका कारण आप नहीं देखते । यही न ?
स्थूलसे सूक्ष्मकी ओर विकास-क्रम है, यह तो ठीक ही है न ? लेकिन यह कथन मानव-भावनाकी अपेक्षासे उतना नहीं है जितना वस्तुगत और तथ्यात्मक है। ___ उसी बातको यदि भावना-सापेक्ष बनाकर कहा जावे, तो कहा जायगा कि वह विकास अनैक्यसे ऐक्यकी ओर है । ऐक्य-विस्तार ही है विकासका लक्ष्य ।