________________
१६८
प्रस्तुत प्रश्न
'और किसी रूप में 'विकास' शब्द के मूलाभिप्रायको व्यक्ति सापेक्ष बनाकर कहा नहीं जा सकता ।
' अनैक्यसे ऐक्यकी ओर', इसीका अन्वयार्थ और चरितार्थ बन जाता है : हिंसासे अहिंसा की ओर ।
स्थूलसे सूक्ष्म : यह विकासकी तात्त्विक गति है । हिंसासे अहिंसा : यह विकासकी सामाजिक अथवा मानवीय गति है ।
प्रश्न- क्या प्राणिमात्रकी प्रेम-भावना भी विकासके क्रमसे आबद्ध है ? यदि है, तो स्थूलसे सूक्ष्मकी अथवा हिंसासे अहिंसाकी राहमें किस प्रकार कहाँ और कब हम प्रेम विकसित होते देखते हैं ? उत्तर—जहाँ क्रम-क्रमसे खुलने की बात है वहाँ आबद्धता कैंस आ सकती है ? विकास किसीको बाँध नहीं सकता, विकसित ही कर सकता है । विकास इमपर घटित हो जाता है, इतना ही नहीं, विकास हम घटित करते भी हैं । अर्थात् विकास एक वह क्रिया है, वह धर्म है, जिसमें हम विवेकपूर्वक सक्रिय सहयोगी होने के लिए हैं ।
प्रेमका आरंभ किस ईस्वी अथवा ईस्वी पूर्व शताब्दी में है, यह कहना कठिन है । कह सकते हैं कि जहाँ जीव और जड़की पृथक्ता है, वहाँ ही प्रेमकी आवश्यकता है ।
आरंभ में, विज्ञान बताता है कि, पृथिवी अग्नि-खंड थी । फिर आग गलकर जम आई, उसने स्थूलता पकड़ी, मट्टी बनी, पानी बना... आदि ।
I
काफी काल बाद पानी में वनस्पति उगने में आ गई । उसके बाद उस वनस्पतिके इर्द गिर्द ही जीव जन्तु बन आये, जो चलते फिरते थे । उसके अनंतर थलचर प्राणी और पक्षी बने । प्रेमको अगर हम दो लगभग समप्रकृति ( जैसे नर और मादा ) जीवोंके मिलनकी परिभाषामें लेवें तो कहा जा सकता है कि जब लिंग की उत्पत्ति हुई, वहींसे प्रेम पहचानने योग्य अर्थात् भावनात्मक हुआ । उससे पहले बिना नरकी सहायता के केवल मादासे ही वंश-वृद्धि हो जाती थी । एक ही (जीवाणु) अपनेको गुणानुगुणित करता जाता था । तब ज्यामिति क्रमसे सृष्टि होती थी। पर उस प्रक्रियाको हम प्रेमका नाम नहीं देते, कुछ और नाम देते हैं । लेकिन अगर पूछा जाय कि सूरज और धरती में क्या सम्बन्ध है ? धरती क्यों उसके चारों ओर चकराती है ? वह स्वयं किसपर टिकी है ? प्रकृतिके उपादानों में, जल और थल में, वायु और आकाशमें क्रिया-प्रतिक्रिया परस्पर क्यों होती रहती