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प्रस्तुत प्रश्न
कितना भी ज़बर्दस्त दैहिक बल तनिक मानसिक बलके आगे तुच्छ है, यदि. यह बात विकास-धाराको बारीकीसे समझनेसे प्रमाणित हो जाती है, तो दीखनेवाले बलमें विश्वास करना हमारे लिए अनुचित हो जाता है।
'विकास' शब्दसे जो अभिप्राय साधारणतया लिया जाता है, उसमें स्थूल बलपर ही ज्यादा जोर है । अंग्रेजीके शब्द Natural Selection और Survival of the fittest आदिमें कुछ इसी अर्थकी ध्वनि भर गई है। मैं उस अर्थको अयथार्थ मानता हूँ। वह अवैज्ञानिक है। ___ यह नहीं कि विकासमें अबलताकी जीत होती है । बल्कि मतलब यह है कि उत्तरोत्तर ऊँचे प्रकारका बल, अर्थात् सत्य-बल विजयी होता है और स्थूलतर बल पराजित होता है । जो उच्चतर है, वह सूक्ष्मतर भी है । इस भाँति कहा जा सकता है कि इतिहास-गत विकासद्वारा नैतिक बलको ही पुष्टि मिल रही है
और हिंसा-बलकी सत्ता क्षीण पड़ती जा रही है । इतिहासको अगर ठीक ढंगसे पढ़ा जाय तो यही दीखना चाहिए ।
प्रश्न-दहिक बलके विरुद्ध मानसिक वल उत्तरोत्तर प्रबल हो रहा है, यानी कैसे ही बड़े स्थूल बलधारी प्राणीको एक दुबला पतला जीव अपनी युक्ति और चालाकी अदिसे वशमें कर लेता है। तो क्या उसके इस बलमें नैतिकताका होना अनिवार्य या सहज संभव कहेंगे?
उत्तर-हिंस्र भावकी जहाँ जितनी कमी है, वहाँ उतनी ही नैतिकता है । जो हिंसासे किंचित् भी बचता है, उसी अंशमें जाने-अनजाने वह नैतिक बन जाता है । आप देखें कि यह शब्द-प्रयोग आपेक्षिक ही हो सकता है। प्रखर सूर्य-तेजके आगे दीपक अँधेरा दीखता है, लेकिन अंधेरेमें तो वही उजाला देता है। इसी भाँति हिंसा-वृत्तिसे शून्य न होते हुए भी मानव नीति-शून्य प्राणी नहीं है । क्यों कि मानवमें कितनी ही हिंसा हो, उस हिंसाके भी जड़में अहिंसा ही है । इसलिए मैं बे-खटके कह सकता हूँ कि दानवी क्रूरतासे चतुर व्यक्तिकी चतुरता, चाहे वह छल-छद्मके संयोगके कारण निन्दनीय ही हो, नीतिके मानमें ऊँची है । तभी तो हम पशुसे पापी आदमीको ऊँचा दर्जा देनेको तैयार हो जाते हैं । मुर्दा आदमी दुष्टताके दोषसे मुक्त है; लेकिन क्या इस कारण वह मुर्दा व्यक्ति एक दष्ट जीवित व्यक्तिसे ऊँचा है ?