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जीवन-युद्ध और विकासवाद
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है ? तो इस सबका उत्तर क्या होगा ? उत्तर दे दीजिएगा : कुदरत, कानून, सृष्टि-नियम आदि । शायद विज्ञान कहे : आकर्षण । लेकिन जो एकदम घरेलू शब्द है और जो सुबोध है, मुझे तो वही प्यारा और सच्चा लगता है । वही मुझे हार्दिक उत्तर भी मालूम होता है । और वह है, प्रेम । व्यष्टि और समष्टिकी पृथक्ताको परस्पर सह्य बनानेवाला है प्रेम । उस दुस्सह बिछोहको यत्किंचित् पूर्णतासे और वास्तविकतासे और रससे भर देनेवाला तत्व है प्रेम ।
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वह प्रेम कहाँसे आरंभ हुआ, यह प्रश्न ही तब कैसा ? वह तो अनादि है । हम सब नहीं हैं, खंड कुल नहीं है । इसलिए प्रेम ही है । खंडका संपूर्णता से बिछोह प्रेमको अनिवार्य बनाता है ।
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स्थूलसे सूक्ष्म, हिंसा से अहिंसा, — यह गति प्रेमके घने और व्यापक होते जाने में स्वयमेव गर्भित हो जाती है। देश और कालकी संकीर्णतासे जो प्रेम जितना अबाधित होता जायगा, वह उतना ही सूक्ष्म और अहिंसक होगा । और जो जितना संकीर्ण होगा, वह उतना ही स्थूल और हिंसायुक्त होगा ।
ऐक्योपलब्धिकी चेष्टा में इस तरह बढ़ते बढ़ते प्रेम एक जगह आवश्यक रूप में लिंगातीत हो जायगा । वह प्रेम ब्रह्मचर्यमय होगा । ब्रह्मचर्य अप्रेम नहीं है । वह देहातीतका प्रेम है । इसी लिहाज़से सच्चे प्रेमका नाम है अहिंसा । हिंसा में भी मेरी स्थापना के अनुसार तो प्रेरणाके तौरपर जो तत्त्व काम करता होता है वह भी प्रेम ही है । लेकिन वह विकासशील नहीं है, वह तो मरणशील है और क्षणिक है । विकासशील प्रेम सदा अहिंसोन्मुख होगा ।