________________
१५८
प्रस्तुत प्रश्न
है कि कालका काम विकास करना है। यही इन शब्दोंमें भेद समझना चाहिए। यदि कोई ऐसी स्थिति है, अथवा उसकी कल्पना की जा सकती है, कि जहाँ काल नहीं है, तो वहाँ विकासको माननेसे भी छुट्टी मिल जायगी।
प्रश्न--विकासमें जो परिवर्तन अनिवार्य है, क्या उस परिवर्तनसे अलग भी किसी कालका भान हो सकता है ?
उत्तर-शब्दोंकी पकड़ में न आइए । काल हमारी चेतनाकी शर्त ( = category of consciousness) है । अब उस कालमें हमने एक सार्थकता देखनी चाही । कालकी उस मानवाविष्कृत सार्थकताको ही नाम दिया गया 'विकास'।
प्रश्न--लेकिन यह आपने कैसे मान लिया कि सत्के साथ जो कालकी चेतना है वह ठीक ठीक समझनेपर व्यर्थका भ्रम ही नहीं हैं ? काल और विकास, जिसे आप सार्थक कहते हैं, इन दोनोंसे क्या सत्की अपूर्णताका ही भान नहीं होता है ? और यदि कोई विकास है तो क्या वह केवल उस पूर्णताके पा लेनेतक ही नहीं है जहाँ हमारा विकास खत्म ही हो जाता है ? ।
उत्तर-जहाँ वह खत्म हो जाय, वहाँकी बात तो मैं क्या जानता हूँ । इस लिए, हो सकता है कि जो आज मेरे लिए सही है, वह वहाँकी दृष्टि से व्यर्थका भ्रम ही हो । पर आजके दिन उसको भ्रम मानकर मैं कैसे चल सकता हूँ? अन्तमें जाकर काल क्या है और क्या रह जायगा, इसकी कल्पनामें उड़कर आज जो वह मेरे लिए बना हुआ है उससे निषेध कैसे कर सकता हूँ ? अपनी ससीमतासे नाराज़ होकर, या उससे इंकार करके, क्या मैं अपनी सीमाको लाँघ सकूँगा ? असीमका में भाग हूँ, स्वयं असीम हूँ, यह निष्ठा रखकर भी अपना सीमित स्वरूप निबाह सकूँ तभी ठीक है। नहीं तो जीवन असंभव हो रहेगा। सीमाको, अपूर्णताको, निरा अभिशाप में न मान लूँ। सीमा-बद्ध होकर मुझे मौका रहता है कि मैं असीमके प्रति कृतज्ञ हो सकूँ। इसलिए कालकी मर्यादासे भी चिढ़नेकी आवश्यकता नहीं । त्रि-काल त्रि-लोकका जो अधीश्वर है वह किसी लोकमे (घिरा) नहीं है । अर्थात् उसके ध्यानमें, उसकी गोदमें, काल भी अपना स्वत्व खो रहता है । लेकिन वहाँकी बात हम