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प्रस्तुत प्रश्न
खैर यों समझिए । मै हूँ कि नहीं ? 'मैं' के बोध से बचना संभव नहीं । जब हूँ, तब अन्य भी कुछ है । 'मैं' के होने में, नहीं तो, कुछ अर्थ ही नहीं । इस प्रकार हमारे सब व्यापार द्वित्वसे संभव बनते हैं । मैं ज्ञाता, अन्य ज्ञेय । मैं जीव, अन्य जड़ । मैं आत्मा, अन्य वस्तु ।
परिस्थिति जिसको कहा उससे आशय इसी अन्य अन्य के योगसे है । स्थिति मेरे होने की शर्त है। स्थितिहीनताका अर्थ अस्तित्वहीनता ही हो जायगा । किन्तु स्थिति ही सत्का लक्षण नहीं है, गति भी उसमें है । स्थिति गतिद्वारा प्रतिक्षण बदलती-बढ़ती रहे, इसीको कहेंगे जीवन । यही चैतन्यका लक्षण है ।
इस लिहाज़ से प्रत्येक स्थिति, यद्यपि वह क्षण-स्थायी ही है और अपने क्षणसे आगे बंधनरूप हो जाती है, लेकिन, ठीक अपने समय और अपने स्थानपर वह जीवन विकास में सहायक ही होती है ।
प्रश्न--धर्म और ध्येय में क्या अन्तर है ?
उत्तर—ध्येयके प्रति उन्मुखता धर्म है । धर्मकी कोई वस्तुगत ( = Objective ) सत्ता नहीं है । खंडका समग्र के प्रति निवेदन धर्म है ।
ध्येय भी अन्तमें ध्यातासे अलग नहीं रहता । ध्याता और ध्येय के बीच अनन्य-ध्यानका जो संबंध है, मानवी अनुभूति में उसीको सुख, आनन्द, सिद्धि या साधना या जो चाहे कह सकते हैं ।
अन्तमें जाकर भक्त और आराध्य एक हो जाते हैं | Law and Law giver are One, वहाँ नियम ही नियन्ता है ।
प्रश्न – संसार ( Universe ) क्या विकासशील है ?
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उत्तर - विकासशील मानकर ही हम गतिको सह सकते हैं । जहाँ गतिका आभास नहीं है, वहाँ 'विकास' शब्दको प्रयोग में लाने तकका अवकाश नहीं है । यदि काल ( Time ) है, तो विकास ही उसका अभिप्राय हो सकता है । प्रश्न – किसी एक खूंटेके चारों ओर चक्कर लगाये जानेमें गतिको तो सहा जा सकता है, किंतु क्या उसमें कोई विकास भी आभासित होता है ?
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उत्तर – कौन ऐसी गतिको सहता है ? कोल्हूका बैल जरूर सहता है, लेकिन क्या कोई बैल तक भी कोल्हूका बन कर रहना चाहता है ? और आप देखें कि बैलको कोल्हूका बनाने के लिए उसकी आँखोंको पट्टी डालकर लगभग अंधा कर