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प्रस्तुत प्रश्न
स्थानपर चिरंतन युद्धकी ही संभावना है क्यों कि सभी व्यक्ति एक दूसरेपर विजयी होनेकी कोशिश करेंगे।
उत्तर-आत्माकी रक्षाके अर्थ 'पर' से और परिस्थितिसे युद्ध करते रहनेका नाम ही जीवन है। किन्तु यहाँ 'युद्ध' शब्दसे डरनेकी आवश्यकता इस लिए नहीं है कि आत्मा तो सर्वव्यापी है और एक है । इसलिए अपनी
आत्माकी रक्षामें सबके ही सच्चे हितकी रक्षा आ जाती है। ऐसा युद्ध प्रेमका युद्ध होता है । वह किसी व्यक्तिके खिलाफ नहीं होता, बस अप्रेमके खिलाफ होता है । उससे अंतमें हार्दिक ऐक्य ही बढ़ता है।
प्रश्न-आत्मा सर्वव्यापी है, यह उस वक्त कैसे समझा जाय और अनुभव किया जाय, या उसके मुताबिक कर्म किया जाय, जब कि यह सब जानते हैं कि सबके पेट और मुँह अलग अलग हैं ? ऐसी हालतमें दो ही बात हो सकती हैं कि उस रोटीको जो मेरे
और दूसरेके बीच है या तो मैं स्वयं ही खा लूँ और दूसरेको भूखा रक्खू , और या उसीको दे दूं और खुद भूखा रहूँ।
उत्तर- कौन अकेला रोटी खाता है ? मैं एक भी ऐसे आदमीको नहीं जानता। कोई भी आदमी ऐसा नहीं है, नहीं हो सकता, जिसके लिए कोई दूसरा ऐसा प्यारा न हो कि जिसे पहले खिलाकर वह खुद पीछे खाना चाहे । मैं पृलूंगा कि ऐसा क्यों है ? बाप खुद भूखा रहकर बच्चेको क्यों खिलाता है ? चोर चोरी करनेका पाप क्यों उठाता है ? खुद दुख उठाकर वह कुनबेको आराम क्यों देना चाहता है ? बड़ेसे बड़ा दुष्ट किसी प्रियके लिए सर्वस्व त्याग करनेको उद्यत रहता है, सो क्यों ? अपराधी बनना किसीको प्रिय नहीं है, फिर भी कोई अप्रिय काम करता है तो किसके ख़ातिर ? मैं दावेसे कहता हूँ कि अपने लिए नहीं, अपनेसे किसी दूसरेके लिए ही वह अपने ऊपर पापका बोझ लेता है। अब पूछा जा सकता है कि ऐसा क्यों है ? इसका एक ही जवाब है। वह यह कि पेट तो सबके अलग अलग हैं और वे सबको अलग अलग रखते हैं, लेकिन कुछ ऐसा भी है जो दोको और कईको पास लाता है और उन्हें मिलाता है और जो उन अनेकोंमें स्वयं एक होकर व्याप्त है। जो सब अनेकताको