________________
व्यक्ति और परिस्थिति
१६३
एक बनाये हुए है, वही परम तत्त्व है आत्मा । हम उसको नहीं भी देख सकें, लेकिन एक कणको, किसी तुच्छातितुच्छ घटनाको भी उठाकर उसे गौरसे देखें तो उसमें भी उस परम तत्वकी आभा मिलेगी । ऐक्य नहीं, तो और किसी भी आधारपर इस जगद्-व्यापारको नहीं समझा जा सकता । आदमी पेट नहीं है, और पेटको सब कुछ मानकर थोड़ी भी उलझन नहीं सुलझ सकेगी। सब अलग अलग मुँहसे खाते हैं, लेकिन उस धरतीमें तो अलहदगीका फर्क नहीं है जिसमें अन्न होता है । क्यों कि अलग मुँह है, इसलिए मनकी एकता संभव नहीं है, यह कोन-सा न्याय है ? क्यों कि अलग पेट हैं, इसलिए सहयोग क्या असंभव ही मान लें ?