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प्रस्तुत प्रश्न
समुद्रमें बूंद कहाँ है ? नित्यता ( =Eternity) में समय (=Time) कहाँ है ? 'विकास' शब्द भी उस पल-छिन-रूप समय-विभागकी अपेक्षामें ही संभव बनता है। क्योंकि सहस्र-लक्ष कोटि वर्ष शाश्वतमें ( =Eternal ) में वैसे ही नगण्य हैं, जैसे रेखामें बिन्दु नगण्य है। इसलिए अगर आप बहुत आगे बढ़कर पूछना चाहोगे तो मुझे यह कहने में कठिनाई नहीं होगी कि विकास भी वहाँ झूठ है जहाँ कहनेवाला मैं स्वयं ही झूट हो जाता हूँ। लेकिन यह तो भाई, झमेला है । बुद्धिको इससे बचाये रखना चाहिए । बुद्धि इसमें गिरी कि ऐसे डूब जायगी जैसे पानी में नोनकी डली । फिर उसका पता नहीं चलेगा।
प्रश्न-विकास जिससे संभव होता है, वह प्रेरणा आन्तरिक है अथवा वाह्य ?
उत्तर-कालकी धारणा द्वित्व बिना संभव नहीं है, इसलिए विकास भी द्वित्वके अभावमें नहीं है । जैसे चने में दो दल होते हैं वैसे ही प्रत्येक अस्तित्वमें दो पहलुओंकी कल्पना है : अन्तः और बाह्य । और जैसे नदी दो तटोंके बीच चलती है और वस्तु मात्रके ( कमसे कम) किनोर ( =Fronts) दो होते हैं, उसी प्रकार विकास अन्तर-बाह्यको निबाहता हुआ संपन्न होता है। उनमें क्रियाप्रतिक्रिया बराबर चलती है। लेकिन यह विवेचन तात्विक कहा जायगा। कर्मकी स्फूर्ति शायद इसमेंसे प्राप्त न हो। इसलिए अगर कर्मकी अपेक्षा, व्यवहारकी अपेक्षा और भविष्यकी अपेक्षा विकासको निधारित हम किया चाहें तो अंतरंगको मुख्य और बाह्यको अपेक्षाकृत आनुपंगिक टहराना उपयोगी होगा। ___ यो कहिए कि मूल प्रेरणाका स्रोत तो है वह जहाँ अन्तर-बाह्य भेद नहीं है । उसे ही परमात्मा कहा । परम आत्मा कहा, परम शरीर नहीं कहा। यानी जो अंतिम (अथवा कि, आदि) सत्य है उसको आत्म-रूपमें ही हमने देखा, पदार्थ ( objective ) रूपमें नहीं। उस अद्वैतसे उतरकर द्वित्वके तलपर आते हैं, तो शरीर धर्म और आत्म-धर्म दो हो जाते हैं और उनमें संघर्ष उपस्थित हो जाता है । ऐसे स्थलपर कहना होगा कि वहाँ आत्म-धर्मको प्रधानता देकर ही चलना उचित है, यद्यपि बिना शरीर आत्मा भी निरर्थक है ।
स्थूलसे सूक्ष्मकी ओर विकासकी यात्रा है। इस लिहाजसे जब कि यह सर्वांशतः ठीक ही है कि अन्तर्बाह्य सामंजस्य सिद्धि है, तब यह भी समझ लेना चाहिए कि बाह्यको आंतरिकके अनुकूल बनाना ही इष्ट है । अनुकूलताको सिद्धि