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व्यक्ति और परिस्थिति
पहुँचना है, तो फासलेको नापनेवाली सड़कसे बहुत कुछ लाभ उठाया जा सकता है । वह सड़क ही हमारा मार्ग है, अगर्चे यथार्थ इष्ट हमारे लिए सड़क नहीं है बल्कि यह है कि कब वह सड़क खत्म हो और हम कलकत्ता पहुँचे ।
परिस्थितियोंको भी इसी निगाहसे देखनेसे काम सधेगा । एकदम परिस्थिति-हीनके अर्थ तो हो जायँगे स्थिति-हीन, यानी सत्तासे ही हीन । यह अवस्था मुक्तिकी नहीं है, यह तो विनाश है । स्थितिमें रहकर उससे आबद्ध न रहना और बढ़ते चलना, बढ़ते ही चलना, यह विकासका लक्षण है । जीवन एक यात्रा है। उसका अंत वहाँ है जहाँ उसका आदि भी है।
प्रश्न-ऊपर आपने एक स्थितिका जिक्र और किया है। इसलिए मैं जानना चाहता हूँ कि आप, आपकी स्थिति और परिस्थिति, इन तीनोंको कहाँ तक आप अलग अलग मानते हैं?
उत्तर--मैं' का अभिप्राय स्पष्ट ही है । 'मैं' और चहुँओरकी परिस्थिति', इन दोनोंके वर्तमान परिणामको ‘मेरी स्थिति' कहना चाहिए । उसमेंसे मैं अपनेको घटा लूँ तो बाह्य जो कुछ शेष रहेगा उसको 'परिस्थिति' शब्दसे निर्दिष्ट किया गया है । यो कहिए कि वस्तुगत स्थिति है, 'परिस्थिति' । 'मैं' है जीवतत्त्व । इन दोनोंको परस्परापेक्षामें रखनेसे 'मेरी स्थिति' प्राप्त होती है ।
लेकिन क्या इन शब्दोंके व्यवहारसे ऊपर कुछ आपको विभ्रम या गलतफहमी होती है ? यह विभ्रम क्या है ?
प्रश्न--ऐसा केवल मैंने निश्चय करनेके विचारसे पूछा । हाँ, तो अब मैं पूछना चाहता हूँ कि जीव-तत्त्वके (सत्के ) अतिरिक्त शेष स्थिति या परिस्थिति क्या वास्तवमें कोई सत् वस्तु हैं? क्या वे शून्य यानी असत्में (=Vacuumमें ) बनी असत्की रेखा या उसकी छाया ही नहीं हैं और उसको बाँधने ही वाली नहीं है ? तब आपका यह कहना क्यों कर समझमें आये कि मेरे लिए मेरी स्थिति सहायक ही होती है ?
उत्तर- यह तो सूक्ष्मतामें खींचा जा रहा है । वहाँ डर यह है कोई कथन बाज़ीगरीका-सा न मालूम होने लगे । अनिर्वचनीयको वचनमें लानेकी कोशिशसे भाषाके स्वरूपपर बहुत बोझ आ पड़ता है। भाषा वहाँ टूट जायगी।