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२१-व्यक्ति और परिस्थिति प्रश्न-मनुष्य भला या बुरा अपनी परिस्थितियोंके अनुसार बनता है। परिस्थितियोंसे वह डिक्टेट किया जाता है : क्या ऐसा आप स्वीकार करते हैं ?
उत्तर-यानी, क्या परिस्थितियोंका व्यक्तिपर पूरा काबू स्वीकार करता हूँ ? नहीं, व्यक्तिपर काबू परिस्थितियोंका हो, यह मैं नहीं मान पाता । टीक जैसे कि देहका आत्मापर अकाट्य बंधन मैं नहीं स्वीकार कर पाता । फिर भी आत्माकी अभिव्यक्ति देहद्वारा ही होती है, और दैहिक स्वास्थ्य अथवा अस्वास्थ्य हमारी अन्तरंग दशापर भी प्रभाव डालता है। वैसे ही यहाँ समझना चाहिए । परिस्थितियाँ बदलती रहती हैं !-क्या नहीं ? उन होते रहनेवाले परिवर्तनोंको समझें तो जान पड़ेगा कि उनका आरंभ किसी एक प्रतिभा-संपन्न व्यक्तित्वसे होता है । कर्म-स्वातंत्र्य और 'इनीशीएटिव्ह' आदि शब्दोंमें नहीं तो फिर कुछ अर्थ ही न रह जायगा । भावना-संकल्पको कर्मके मूलमें मानना ही होगा और वे भावना-संकल्प व्यक्ति में जन्म लेते हैं । इससे अगर कहना ही हो तो यह कहना अधिक उपयुक्त मालूम होता है कि बाह्य-स्थितिकी अपेक्षा व्यक्ति प्रधान है।
प्रश्न-यदि परिस्थितियाँ प्रधान नहीं हैं तो फिर क्यों अधिकांश मानव-समाज सत्कर्मको जानते हुए भी उसके विपरीत काम करते देख जाते हैं ?
उत्तर-शायद इसीलिए कि उन्हें अपने बलका पता नहीं है।
प्रश्न-तो क्या इसका मतलब यह है कि जीवन आदिसे परिस्थिति प्रधान है, और फिर वह धीरे-धीरे व्यक्तित्त्व-प्रधान हो रहा है?
उत्तर-हाँ, यह कह सकते हैं ।
प्रश्न-तो क्या परिस्थितियाँ आत्माके प्रति विदेशीय ( =Foreign ) हैं, ऐसा आप मानते हैं ?
उत्तर-अगर चरित्र निर्माण और कर्म-निष्ठाकी अपेक्षा, अर्थात् व्यवहारकी