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व्यक्ति और परिस्थिति
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दिया जाता है । नहीं तो वैसे क्या वह अपनेको कोल्हमें जुतने दे ? यह बैलकी बात हुई। तब आदमीकी तो क्या पूछिए !
प्रश्न-कोल्हूकी मिसाल छोड़िए । मान लीजिए मैं गेंदसे खेलता हूँ,-मैं उसे उछालता हूँ और हाथमें लपक लेता हूँ। मैं इस क्रीडामें लीन हो जाता हूँ। क्या इस बीच मेरा कोई विकास हो रहा है ?
और क्या इसी तरह हमारा दौड़ना-भागना और फिर सो जाना, पाना और फिर खर्च कर डालना, आदि हमें एक चकरहीमें नहीं फिरा रहे हैं?
उत्तर-मनके आह्लादको भ्रमित गति हम नहीं कह सकते । चिन्ता-सन्देह जरूर इस तरह के भरमीले भँवर हैं। उनसे प्रवाहकी गति मंद होती है। अतः वे विकासमें बाधक हैं । हम पैदा होते, दुख उठाते और मर जाते हैं । शायद फिर भी पैदा होते हों। अगर फिर भी पैदा होते होंगे, तो अंतमें मरते भी होंगे। इस सबका क्या अर्थ है:-यह तो मैं कैसे जानूँ ? ठीक वैसे ही जैसे कि उछाली जानेवाली गेंद अपने उछलने, उठने और गिरनेका अर्थ नहीं जानती होगी। लेकिन उस सब व्यापारमें कुछ भी अर्थ नहीं है, यह कहने की हिम्मत भी मुझे किस बलपर हो ? जान पड़ता है कि मैं धृष्ठता और हठके साथ कुछ देरके लिए सब कुछको व्यर्थ मान भी सकूँ, तो उतनी ही देरमें शायद मैं मर भी जाऊँ । सर्वथा इन्कारपर जीना कसे हो सकेगा? इससे मैं मानता हूँ कि हम जाने अथवा नहीं जाने, हमारे द्वारा एक नित्य धर्म ही निष्पन्न हो रहा है।
प्रश्न--आपने ऊपर कहा है कि यदि काल है तो विकास ही उसका अभिप्राय है। लेकिन विकासको कालका आभिप्राय क्यों कहा जाय? काल तो जिसे हम विकास कहते हैं, उसका गतिरूपसे भान या आभास-मात्र है। स्वयंमें तो वह कुछ नहीं है जिसका कि अभिप्राय हूँढा जाय । यदि विकास खोजनेपर एक भ्रम साबित होता है, तो काल भी क्या उसीके साथ साथ खत्म हो जाता है ?
उत्तर-'काल' संज्ञामें किसी मानवी प्रयोजनका भाव नहीं है। वह मानो एक वैज्ञानिक ( =पारिभाषिक ) संज्ञा है । 'विकास' शब्द कुछ अधिक मानवसापेक्ष है । काल क्या करता है, यदि यह प्रश्न हो, तो उत्तर दिया जा सकता