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प्रस्तुत प्रश्न
जो उस अभ्युदयका अपनेको अधिकारी समझता है, कभी अपने इस व्यवहारको स्वयं ही अनुचित समझने लगेगा?
उत्तर-यह विश्वास इसलिए किया जा सकता है कि कोई भी शोषक कोरा शोषक ही नहीं है, वह आदमी भी है । उसके माँ-बाप होंगे, भाई-बहिन होंगे, बाल-बच्चे होंगे, बन्धु-बान्धव होंगे। वह समाजका भाग होगा । अगर समाजके अन्तःकरणमें वस्तुओंके विविध मूल्योंकी धारणा बदल जावे, लखपतीका आजकी तरहसे दबदबा न रहे और वह अपने लखपतित्वके लिए सामान्यसे किसी कदर हीन ही व्यक्ति समझा जाय तो लखपती होनेकी लालसा और लखपती हो जानेपर गर्वकी भावना फिर किसके सहारे उसमें पैदा होगी और किसके सहारे टिकेगी? मेरे अभिमानको तुष्टि तभी मिलती है जब दूसरा मेरे समक्ष कुछ झुकता हुआ दीखता है । पैसे से वह शक्ति जब खिंच रहेगी तब पैसेका ढेर पेटके नीचे रखनेका आग्रह भी मन्द हो जायगा । __ आज जो हमें पूँजी-पतिके पूँजी-मोहसे उबरने की संभावना असंभव दिखाई देती है, तो क्या इसका कारण यह भी नहीं हो सकता कि उस पूँजी-मोहके शिकार थोड़े-बहुत हम भी हैं ? आज भी क्यों मै पूँजी, पूँजीपति और पूँजी-वादीके अतंकको अस्वीकार नहीं कर सकता? और अगर सच-मुच ही उस आतंक-बोधसे मैं छुटकारा पा जाता हूँ तो मुझे निश्चय है कि कमसे कम मुझे लेकर तो अपनी पूजीके अधिपतित्वमें उस आदमीको स्वाद अनुभव नहीं हो पायगा । क्या यह अविश्वसनीय मालूम होता है कि गौतम बुद्धके समक्ष होकर एक लक्षाधिप अथवा नराधिप अपनेको निम्न ही अनुभव कर आता होगा? वहाँ उसका दंभ,--उसकी शोषकताको क्या हो जाता है, और वह मानो दयनीय क्यों हो आता है ? मैं पूछता हूँ, क्यों ? इसके जवाबमें ही असली जवाब है।
मुझे मालूम होता है कि पूँजीपति लोकमतका (=Public opinionका) दास ही होता है । लोकमतसे वह बेहद घबराता है और उसकी अनुकूलता और दासानुदासताद्वारा ही वह-धन कमा पाता है। उसके व्यक्तित्वमें कुछ असली तरीकेकी हिम्मत होती तो वह धन नहीं बल्कि समाजमें सच्ची नैतिक निष्ठाका अर्जन करता। इस लिहाजसे मुझे शंका नहीं है कि खूब पैसा कमाकर झोपड़ियोंके बीचमें अपना महल बनाकर बैठनेवाला साहूकार कमजोर आदमी होता है। झोपड़ियोंका उसे डर रहता है। उसके विश्वास पुष्ट नहीं होते और वह