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क्रान्तिः हिंसा-अहिंसा
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प्रचलित सामाजिक मान्यताओंके टेकनपर टिककर ही जीता है । वह टेकन हटे कि उसकी सारी ऊँचाई धूलमें मिली हुई दिखाई दे आए ! और मैं नहीं समझ पाता कि रुपएके मोल आत्माका सौदा करने में कौन बड़प्पन है ?
प्रश्न-किन्तु उस लोकमत अथवा सामाजिक मान्यताओंकी टेकनके हटनेसे उसके तोपक-गलीचा, गाड़ी-मोटर महल आदि आरामका सामान और भविष्यके लिए वाल बच्चोंकी सुरक्षा भी क्या हट जायगी? और क्या इनके लिए उसमें पूँजी-मोह वना ही न रहेगा?
उत्तर-हा, वह हट भी सकते हैं । रूसका जार गिरा । उसके बाल-बच्चे, मोटर-वैभव क्या हुए ? मान लीजिए, उसे मारा न जाता, जिन्दा रहने दिया जाता, तो भी क्या उसका जीवन किसी प्रकार स्पृहणीय समझा जाता ? कलके बड़े बड़े अमीर-उमराव राजे-नवाब परिस्थितियोंके प्रतिकुल हो जानेपर अपनी थोड़ी-बहुत सम्पत्ति के बावजूद किस कोनेमें कैसे निर्वाह कर रहे हैं, कोई आज इस बातको जाननेकी भी पर्वाह करता है ! अगर उन्हें कोई देखता भी है तो ऐसे जैसे प्रेक्षक किसी ऐतिहासिक खंडहरको देखता है। __इसलिए ऊँचे महल और संपत्तिकी बहुलताको हम ज़रूरतसे अधिक न गिने । किसीका जीवन केवल इनपर नहीं बीतता । पैसेवालेका तो और भी नहीं । अगर बाहर समाजमें किसीके नामकी थूथू हो रही हो, तो लाख पैसा उसको जरा आराम नहीं दे सकता । यहाँ 'आराम से केवल मानसिक आरामका मतलब नहीं है, ऊपरी और दहिक आरामकी बात भी उसमें गर्भित है । बहिष्कारको (=Social Boycott को ) आप छोटा दंड न मानिए । शायद इससे बड़ा दंड कोई हो नहीं सकता । इसलिए यह कहना कि पूँजीवालेको, जबतक उसके पास पूँजी है, अंहकारसे निवृत्ति मिल नहीं सकती, ठीक नहीं है। यों तो ईसाने कहा ही है, 'सुईके नकुवे से ऊँट चाहे निकल भी जाय, पर स्वर्ग राज्यमें धनिकका प्रवेश उससे भी कठिन है।'
प्रश्न-यदि आपका यह विश्वास ठीक है तो फिर समाज इस दशाको पहुँचा ही क्यों कि पूँजीपति उसके सर्वेसर्वा बन गये ? क्या आपका विश्वास आज तकके इतिहासकी कसौटीपर सच्चा उतरता है ?