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कान्ति : हिंसा-अहिंसा
शोषित दीखता है, किसी अघट घटनाके योगसे वह यदि अधिकार प्राप्त हो जावे तो वह किसी शोषकस कम दीखेगा, ऐसी संभावना नहीं है । अतः यही कहा जा सकता है कि शोषक वर्ग अधिक प्रबुद्ध है, सगठित है और चतुर है, इससे शोषक है; और दूसरा अप्रबुद्ध है, इससे निर्बल है और शापित है। किसी वर्गके स्वार्थको ऊँचा उठाकर उसीमें त्राण मानने लगनेमे शोषण बन्द नहीं होगा, इस भाँति वह और गहरा होगा। यदि शोषण बन्द होना है तो वह तभी होगा जब कि प्रत्येक वर्ग और प्रत्येक व्यक्ति यह जाने कि उसका अपना अलग और भिन्न स्वार्थ कोई नहीं है। जो पराथसे अविरोधी है वही स्वार्थ सच्चा स्वार्थ है।
जिन्हें संकीर्ण भावसे अपने स्वार्थोको देखने और साधनेकी आदत हो गई है, वे स्वभावतः ऐसे प्रयत्नमें बाधा बनकर सामने आयेंगे जो सर्व-हित साधन करना चाहता है । यह तो मनुष्यका स्वभाव है । लेकिन इसमें निराश होने-जैसी कोई बात नहीं है।
अगर हम समाजकी विषमताको दूर करना चाहते हैं तो वह तभी दूर होगी जब हम उस विषमताकी चेतनास स्वयं हटेग और बाहर भी उसे कम करने में प्रयत्नशील होंगे । वर्ग-विग्रह ही तो शिकायत है, वही तो रोग है । वर्ग-विग्रहकी चेतनाको गहरा करनेका उपाय तो रोगमें गहरे फँसनेका ही है । इसस व्यक्तिमात्रको, चाहे फिर वह राजा हो या रंक हो, एक धरातलपर रखकर विचार करने या व्यवहार करनेसे ही सामाजिक समस्याका कुछ समाधान हो सके तो हो सके, अन्यथा तो वह उलझती ही जायगी। वर्ग-विग्रहकी ( =Class struggle की) जगह वर्ग-संग्रहकी (=Class Collaboration की) भावना चेतानी होगी।
आदमी आदमी है। जो भेद है वह कृत्रिम है । उस कृत्रिम भदके नीचे आदमी आदमीकी सहज सामान्यता हम नहीं पहचानेंगे और उसीको नहीं याद रक्खेंगे तो हमारा पैदा किया हुआ समाजव्यापी वैषम्य किसके सहारे फिर दूर हो सकेगा? इसीसे मेरी धारणा है कि आर्थिक लड़ाईको पारमार्थिक दृष्टि-कोणसे देखकर ही निपटाया जा सकेगा। प्रचलित अर्थशास्त्रमें प्रचलित आर्थिक संकटोंका इलाज मिलेगा ही कहाँसे, क्यों कि वही तो उस संकटके मूलमें है।
प्रश्न-क्योंकर विश्वास किया जाय कि वह शोषक जिसका शोषणमें अभ्युदय हुआ है और उस शोषणकी क्षमता होनेसे ही