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प्रस्तुत प्रश्न
मनुष्योचित ही बर्ताव दूसरेसे स्वीकार करें । मानवोचितके अतिरिक्त पूँजी अथवा श्रमका एकका दूसरेके प्रति, अथवा दोनोंका तीसरेके प्रति, कोई अधिकार नहीं है । संगठन भी इसी एक सिद्धान्तके अधीन होने चाहिए और हो सकते हैं। जिससे इस सिद्धान्तका उलंघन हो वैसा कर्म, व्यक्तिगत हो अथवा सांघिक, समाज विक्षोभ पैदा करता है और जन-शक्ति और जन-कल्याणका ह्रास करता है।
प्रश्न-मान लिया जाय कि मजदूरोंकी एक बड़ी संगठित जमात कोई सभा या सम्मेलन करती है और उन्हें तितर-बितर करनेके लिए मालिकोंकी ओरसे उनपर सशस्त्र प्रहार होने लगता है। उस समय मजदूरोंका या किसी सत्याग्रहीका क्या कर्तव्य होना चाहिए ? वदला लेना तो खैर हो ही क्यों सकता है, किन्तु क्या बचने बचानेका भी प्रयत्न करना होगा, अथवा चुप-चाप खड़े रहना होगा?
उत्तर-अगर आंदोलन की कोई षड्यंत्र नहीं कर रहे हैं तो मारके डरसे वे क्यों तितर-बितर हो जावें ? पर इस बातपर विश्वास होना चाहिए कि वे मिल-बैठकर किसीकी बुराईकी बात नहीं सोचते हैं,-अपनी भलाईकी बात ही सोचनेके लिए जमा हुए हैं । नहीं तो, सत्याग्रहके नामपर दुराग्रह हो जायगा ।
प्रश्न--डरसे नहीं तो क्या बुद्धिमत्ताहीका लिहाज़ कर वहाँसे हट जाना चाहिए ? मान लिया जाय कि हमारे कार्य-स्थानपर किसीकी गोली तो नहीं पर आस्मानसे ओले ही बरसने लगे हैं। तो क्या उन ओलोंकी वाधाको अस्वीकार न करना होगा ? क्या उनके नीचे दबकर मर जाना होगा?
उत्तर-हाँ, बुद्धिमत्ताके लिहाज़से बच जाना भी ठीक हो सकता है । मतलब तो यह है कि मानवी हिंसाके आतंकसे दबकर कोई काम करना उचित नहीं है ।
प्रश्न-यदि बचनेका स्थान न मिलता हो और मुँहपर लाठी पड़ रही हो, तो क्या उस लाठीको पकड़ लेना अनुचित होगा?
उत्तर-नहीं। प्रश्न-और उसे छीनकर फेंक देना? उत्तर-वह भी नहीं।