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प्रस्तुत प्रश्न
उत्तर--कारण उसका क्या कहा जाय ? कह सकते हैं कि हम आदिसे मायामें ग्रस्त हैं। ___ हाँ, इतिहाससे मुझे तो अपनी ऊपरकी स्थापनाके लिए पुष्टि मिलती है। पहले बाहूबलकी जितनी कीमत थी क्या आज भी उतनी है ? पहले फौजी नायकके हाथमें ज्यादा शक्ति रहती थी, आज फोजी नायकके ऊपर व्यवस्थापिका सभा है । इसी तरह और भी परिवर्तन हुए हैं। मैं मानता हूँ कि ज्यों ज्यों हम आगे बढ़ेंगे, चरित्रबलकी प्रभुता बढ़ती जायगी, पशुबल और धनबलकी महत्ता घटती जायगी। मुझे वह अवस्था अकल्पनीय नहीं मालूम होती जहाँ ब्रह्मज्ञानीको कोषाध्यक्षसे और सेनापतिसे अधिक सामाजिक श्रेष्ठता प्राप्त होगी। सूक्ष्म-भावमें देख तो वह अवस्था आज भी है।
प्रश्न-भूखे नंगे मजदर जैसे असंस्कृत प्राणियोंवाले जनसाधारणमें पेटकी आग क्योंकर धनिकोंके मुकावलेमें उनकी हनिता सुझानेसे वाज आयेगी और क्योंकर घृणा और द्वेपके स्थानमें प्रेम और समताका भाव पैदा होने देगी ? क्या ऐसा सहज नियमके वेरुद्ध और असंभव ही नहीं प्रतीत होता ? समृद्धिमें तो वह विरक्त बिबी देखी गई है, किन्तु भूखे मरते मनुष्योंकी अकिंचनतामेंसे होत क्या वही विरक्ति उग सकेगी ? आपका गौतम बुद्धका भीण तो इसका सही प्रमाण नहीं है। उदाहर-यह बिल्कुल ठीक है। जो भूखा है और भूखमे त्रस्त है, वह भोज्य
उत्तराधारणसे अधिक ही महत्त्व देगा । उसकी वृत्तिमें समता दुर्लभ है। पदार्थको ऐमा उपाय करना चाहिए कि जिसस लाचारीके कारण कोई भूखा न इसलिधेच्छापूर्वक किया गया उपवास तो भूखा रहना है ही नहीं । इसलिए, रह । कहा जा सकता है कि भूखा रहना पाप है। या इतना कहनके बाद यह मानना मेरे लिए कठिन है कि भूखेको यदि भूख मिटानी है तो उस धनाढयका द्वेपी ही होना चाहिए । यह तो ठीक है कि भूखकी अवस्था प्रीतिकी अवस्था नहीं है, और उस हालतमें मनुष्य-मात्र लिए प्रीतिका उपदेश प्रासंगिक भी नहीं है । लेकिन, मैं यह तो कहना चाहता ही हूँ कि अगर भूखा व्यक्ति ईव्की जलनसे और भी जलना आरंभ करेगा तो इससे भूखकी जलन कम होनेकी संभावना नहीं होगी, बल्कि इस प्रकार वह संभावना