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क्रान्ति : हिंसा-अहिंसा
कुछ दूर ही हटेगी। अगर सच्चे तौरपर भूखकी भूख मिटानेके साधन पैदा करना है तो उसके द्वेषको गहरा नहीं करना होगा, बल्कि उसे स्वाधीन भावसे उद्यमी बनना बताना होगा। वर्ग-विग्रह काम न आयगा, विवेकपूर्वक हृदय, बुद्धि
और शरीरका उपयोग ही उसके कुछ काम आ सकेगा। वैसा कोई उद्योग ही उन अकिंचनोंके संगठनका मध्य-बिन्दु बनना चाहिए । अन्यथा उनका कोरा संगठन,-यानी पूँजीवालोके विरोधकी वासनाके आधारपर किया गया वाग्बहुल संगठन, अन्ततः विष-फल ही उत्पन्न करेगा।
प्रश्न--उस संगठनका उद्देश्य मालिक-मज़दरके भेदको हटाना ही हो सकता है। किन्तु इस समस्याका हल तो आपने भावनात्मक बतलाया है : यानी मजदूरों और मालिकोंके दिलोंमें परिवर्तन । तब फिर उसके लिए मजदूरोंके संगठित होनेकी ही कौन-सी आवश्यकता रह जाती है ?
उत्तर-संस्था और संघ तो सदा ही आवश्यक हैं। पेड़ोंके जंगल और मनुष्योंके समाजमें अन्तर है, तो क्या ? अन्तर है मनुष्यकी यही संघ-वृत्ति । व्यक्तित्वको व्यापक होना है कि नहीं ? या व्यक्तिकी परिधि व्यक्ति ही रहे ! सम्मिलित, एकत्रित व्यक्तित्वका नाम 'संस्था' है । संस्थामें संगठन आ ही जाता है।
शायद आपको शंका है कि जहाँ संगठन आया वहाँ विरोध तो आया ही रक्खा है । हाँ, संगठनमें अंशोंकी स्वाधीन सत्ता अवश्य गर्भित है, लेकिन उन अंशोंकी ओरसे स्वेच्छापूर्वक उस स्वाधीनताका आंशिक समर्पण भी गर्भित है । वहाँ विरोधकी भावना बेशक नहीं चाहिए । वैसा विरोध अनिवार्य है, यह मैं नहीं मानता।
प्रश्न--क्या आपका मतलब यह है कि मज़दूर अपना उचित स्थान पानेके लिए एक विश्वव्यापी संस्था संगठित करें और फिर किसी एक समय संगठित और संपूर्ण असहयोगद्वारा मालिकोंको मजबूर करें कि वे अपने उन अधिकारोंको छोड़ें जिनके कि वे आधिकारी नहीं हैं?
उत्तर-असलमें जो मैं चाहता हूँ उसके लिए अधिकारों की चेतना और चिंता कुछ विदेशी है । मजदूर भी आदमी, पूँजीपति भी आदमी है । दोनोंका कर्तव्य है कि परस्पर मनुष्यकी भाँति रहें। उसके बाद दोनोंका अधिकार है कि वे