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क्रान्ति : हिंसा-अहिंसा
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प्रश्न-क्या इस छीन-झपटमें पाशविक बलका प्रयोग न होगा?
उत्तर--'छीन-झपट' आपने कहा ? किन्तु इसमें दूसरी ओरसे 'झपट कहाँ है ? और जो अकेली ‘छीन' है वह भी दीखने-भरकी है, लाठी प्रहार कर्ताके हाथ से अलग हो ( या की) गई है। यहाँ प्रहार सहनेवालेकी ओरसे पाशविक बलका प्रयोग किस जगह है ? प्रहार न खाना तो पाशविक बलके प्रयोगका काफी सबूतन ही है।
प्रश्न--विकास और क्रान्तिमें आप क्या अन्तर मानते हैं ?
उत्तर- 'विकास में बलात् परिवर्तन और उथल-पुथलका भाव नहीं है जो कि 'क्रान्ति' में है।
प्रश्न--उथल-पुथलसे क्या मतलव ? क्या मनुप्यका कोई कर्म थोड़े-बहुत अंशमें उथल-पुथल ही नहीं है ? और क्या उस कर्मके बिना कोई विकास संभव है ?
उत्तर--' उथल-पुथल से मतलब है कि जहाँ पूर्वके साथ पश्चात्का मेल न देखा जाय, विरोध ही देखा जाय । अतीतके खंडनपर वर्तमान और वर्तमानके खंडनपर भविष्य बने, यह अभिप्राय ' क्रान्ति' में है । उन अतीत-वर्तमान एवं भविष्यमें किसी धारागत एकताकी स्वीकृतिका आशय — विकास में है।
प्रश्न-तो क्या अतीत या वर्तमानको मनुष्य विल्कुल ठीक ही समझे?
उत्तर-बिल्कुल ठीक तो समझ नहीं सकता, क्योंकि इस प्रकार भविष्य उसके लिए नष्ट हो जायगा । लेकिन, इन दोनोंको एकदम इन्कार करनेका भी तो मौका नहीं है, क्यों कि ऐसे भविष्य फिर खड़ा किसपर होगा ?- उसका आधार नष्ट हो जायगा । इंकारपर तो कोई कुछ टिक नहीं सकता।
प्रश्न-आपने विकासके लिए अतीत या वर्तमानका खंडन वर्जनीय कहा था । तो मैं पूछता हूँ कि क्या अतीत या वर्तमानका कोई भी अंश ऐसा नहीं हो सकता जिसका खंडन किया जाना अनिवार्य हो?
उत्तर-जरूर होना पड़ेगा । पर खंडन इष्ट नहीं है, खंडन गर्भित है । भविष्य क्या वर्तमानको ललकारता हुआ आता है ? वह आता है तो बे-मालूम भावसे । इसीसे खंडनके मनसूबोंमें कुछ अर्थ नहीं है । जीना अपने आपमें