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क्रान्ति : हिंसा-अहिंसा १४९ मात्रहीकी किसी न किसी रूपमें अपेक्षा नहीं रहती है ? क्रान्तिवाला खंडन भी खंडनके लिए नहीं है, वह भी सामाजिक पैमानेपर जीने-मात्रके आग्रहमेंसे ही निकलता है ?
उत्तर-तो इसका मतलब है कि प्रेमसे खंडन किया गया,-शान्तिसे क्राति की गई । तो, उसका तो मैं पूरा कायल हूँ ही।
प्रश्न-प्रेमपूर्वक खंडन किया जा सकता है। किन्तु जिसे खंडित किया जायगा उससे आवाज़ पैदा न होगी, इसकी गारंटी कौन ले सकता है ?
उत्तर-कोई नहीं, और उस गारंटीकी माँग मेरी ओरसे है भी नहीं । प्रश्न-लेकिन ऊपर जो आपने क्रान्तिको शांतिसे किये जानेकी शर्त रक्खी है, उसका क्या मतलब है ?
उत्तर- इसका मतलब है कि भावना, लगन और विचार सदा शांतिके होने चाहिए।
प्रश्न-तो मार्क्सद्वारा प्रतिपादित क्रान्तिके प्रति आपका क्या विचार है ? क्या उसमें भावना, लगन और विचारकी शांतिकी शर्त नहीं निभती, या निभ सकती है?
उत्तर-मेरे खयालमें शातिमय भावनाकी शर्त वहाँ नहीं निभती । श्रेणीयुद्धका सिद्धान्त शांतिमय नहीं है। यह मैं नहीं कहूँगा कि मार्समें अथवा मार्क्सवादमें शातिकी इच्छा नहीं थी, या नहीं हो सकती; लेकिन इच्छा ही तो काफ़ी नहीं है । स्वप्न शांतिका हो, तब व्यवहार भी उसीका होना चाहिए । नहीं तो कोरे स्वप्नसे और साथ व्यवहारानुकूलता न होनेसे स्वभावमें बेचैनी और अधीरता पैदा होती है; और स्वप्न और व्यवहारका अंतर इतना बढ़ जाता है कि विरोध दीखने लगता है। शांतिकी चाहमें किये जानेवाले हिंसक प्रयत्न इसी प्रकारकी मनो-दशाको व्यक्त करते हैं । __ मुझे ऐसा मालूम होता है कि अगर मार्क्सके विचारोंसे प्रेरणा प्राप्त करनेवाला कोई व्यक्ति सचमुच शाति-कर्मी हो भी जाय, तो समाजवादी संप्रदायके लोग ऐसे व्यक्तिका 'समाजवादी' कहा जाना नहींगवारा करेंगे। मुझसे पूछो तो सच्चा समाज-वादी धार्मिक व्यक्ति ही हो सकता है, क्यों कि समाजका अंग बनकर रहना और अपने स्वार्थको अलग कटा हुआ न रखना ऐसे व्याक्तिका