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प्रस्तुत प्रश्न
मौतका खंडन ही तो है । जीना मौत को जीतना है । जीने के अतिरिक्त तो कोई तरीका मृत्युसे लड़नेका है नहीं । जीना अपने आपमें मौतका इंकार जो है । इस भाँति देखनेसे मौतका भय जाता रहता है और उस तकसे भेल हो सकता है । इसलिए कर्त्तव्य कर्म तो मेल ही है, और किसी प्रकारकी ठान ठान कर खंडनपर उतारू होना भला नहीं है । मेल बढ़ाने में घृणा आप खंडित होती जायगी । प्रश्न - जीना अपने आपमें मौतका खंडन है, लेकिन उस जीनेमें आखिर साँस लेना, खाना-पीना आदि कुछ तो कर्म है ही । उस कर्ममें विना कुछ हलचल किये आप रह सकते हैं ? खाते, पीते और साँस लेते क्या जरूर आप किसीका खंडन नहीं करते और उस खंडनको क्या आप इट नहीं समझते ?
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उत्तर—मैंने कहा कि खंडन बिना किये भी होता है और वैसा ही खंडन जायज़ है | लेकिन 'खंडन' के शाब्दिक आधार से आगे जाइए कि हिंसाका भाव आ जाता है । हिंसा बिना ' किये' नहीं होती; अर्थात्, हिंसाका संबंध भावनासे है । भावना-हीन कर्म में हिंसा - अहिंसाका प्रश्न ही नहीं है । जीने मात्र में कुछ न कुछ हिंसा आ जाती है । लेकिन जीने में ही जो हिंसा बिना मेरे जाने हो जाती होगी, उसके लिए मुझे अपराधी नहीं ठहराया जा सकता । हिंसाका सवाल उठता ही वहाँ है जहाँ हिंसा ' की ' जाती है । तो यह 'की' जानवाली हिंसा कभी कर्त्तव्य नहीं है, यह निर्विवाद रूपमें कहा जा सकता है । आपके प्रश्न में 'खंडन' शब्द से भावको साफ़ करने में कुछ विशेष सहायता नहीं मिलती है । क्यों कि खंडन वासना के बिना भी संभव मालूम होता है, इसलिए खंडनको सहसा अनुचित कहते नहीं बनता । लेकिन 'खंडित करने की इच्छा' में वासना आ जाती है, हिंसा आ जाती है । इसीलिए कहना होता है कि खंडन मैं कर नहीं सकता, वैसे यों मेरा समूचा जीवन ही एक युद्ध और खंडन की प्रक्रिया है । कर्त्तव्य-कर्म पाने की जहाँ बुद्धि है वहाँ असंदिग्ध रूपमें इष्ट प्रेम ही है, अप्रेम अनिष्ट है। खंडनका समर्थन, लीजिए, मैं करता हूँ, लेकिन वह प्रेमद्वारा अप्रेमका खंडन है । उससे अलग किसी प्रकार की स्थूल खंडनेच्छाका मैं हामी नहीं हूँ । प्रश्न - जीने- मात्रमें कुछ न कुछ हिंसात्मक खंडन होता है जिसकी शायद आप छूट देते हैं । किन्तु कभी लिये खंडन करता देखा गया है ? क्या बड़ेसे बड़े
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कोई खंडन के खंडनमें जीने