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प्रस्तुत प्रश्न
तो धर्म ही हो जाता है । लेकिन समाज-वादी दल और उस वादके शास्त्रीलोग क्या इस बातको किसीके मुँह से निकलने तक देंगे ? इसलिये मैं मानता हूँ कि मार्क्सके अनुगमनमें शांति की रक्षा और पुष्टि नहीं है ।
प्रश्न -- लेकिन ऐसा तो शायद आप भी मानते हैं कि पूँजीपति और मजदूर दोनोंके स्वार्थो में (= Interests में) परस्पर विरोध है ? उत्तर — पूँजीपति और मजदूर दोनों एकसाथ भूचाल में मर सकते हैं । दोनों का स्वार्थ इसमें है कि भूचाल न आवे । यहाँ उनके स्वार्थो में विरोध नहीं दीखता । आदमीकी हैसियत से दोनों के स्वार्थों में विरोध नहीं है ।
सामाजिक हैसियत से विरोध है । एक रकमका अधिक भाग अगर मालिकको पहुँचेगा तो मजदूर के लिए कम भाग रह जायगा । मजदूरको अधिक भाग पहुँचे, इसके लिए जरूरी है कि मालिकका भाग कम हो । यह विरोध है, और जरूर है ।
प्रश्न - ऐसा ही मतलब क्या मार्क्सवादी भी श्रेणी-युद्धका नहीं लगाते ?
उत्तर – हाँ, वे शायद पूँजीपति और मजदूर दोनों में सम-सामान्य मानवताको काफ़ी दृष्टिमें नहीं रखते हैं, जहाँ कि स्वार्थों की पृथक्ता दूर हो जाती है और उनमें अभेद दीखता आता है ।
प्रश्न- पूँजीपति अपने स्वार्थसे अभिन्न होते हैं और उसी तरह मज़दूर भी । उनमें सम-सामान्य मानवताकी गुंजायश कहाँ रह जाती हैं जिसका वे हिसाव लगायें ?
उत्तर- - क्या सचमुच नहीं रहती ? वे एक नगर में रहते हैं, एक प्रांत और देशमें रहते हैं, इस बातका अनुभव क्या उन दोनों को पग-पगपर नहीं होता ? मुल्कपर हमला हो तो क्या दोनों नहीं चेतेंगे ? शहर में क्या म्युनिसिपैलिटीका कानून दोनोंपर ही एकसा लागू नहीं होता ? नदीमें बाढ़ आ जाये, तो क्या वह झोंपड़ी और महलको देखेगी ? इसलिए आँख खोलते हुए मैं कैसे कह दूँ कि उन दोनोंका हित कहीं भी जाकर एक नहीं है ? कारखानेको छोड़कर शेष दुनिया में उनका विरोध लुप्तप्राय हो जाता है ।
प्रश्न -- यदि वह कहीं भी एक हैं या हो सकते हैं तो केवल एक दूसरेसे लाभ उठाने के लिए और शोषण ( = Exploit) करने के