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प्रस्तुत प्रश्न
सच्ची है, उतनी ही बलदायक है । इसीसे पशुताके विरोध नीतिमत्ता और नैतिकताका समर्थन किये बिना उपाय नहीं है।
प्रश्न-उपर्युक्त उदाहरणके अनुसार कह सकते हैं कि समाजमें एक श्रेणी कुछ ऐसे लोगोंकी है जिनकी वृत्ति हिंस्र पशु जैसी है
और जो अन्य लोगोंका शिकार करनेमें लगे हैं। तो क्या उनके साथ वही वर्ताव किया जाय जैसा कि आपने ऊपर शेरके लिए बतलाया कि उसे मार डाला जा सकता है ?
उत्तर-शेर जब खानेको आये तब अगर हमें डर लगता है और अन्यथा हम अपनेको बचा नहीं सकते, उसे मार डालेंगे।
लेकिन यह बात याद रखने की है कि आदमी शेर नहीं है, वह आदमी है। वह जंगलमें नहीं, समाजमें रहता है। उसके साथ मन-चाह तरीकेसे व्यवहार करनेकी हमें छट नहीं है । वह छुट हो नहीं सकती। आदमीके निजके दुर्गुण और अपराधका संबंध समाजसे भी है । शेरकी मानिन्द सिर्फ पेट भरने के लिए आदमी आदमीपर नहीं टूटता । जिसको 'सामाजिक शोषण' कहा जाय वह असलमें समाजव्यापी दोष है। आदमी व्यक्तिगत रूपमें कहा जा सकता है कि उस समाजव्यापी रोगका शिकार होता है । इसी तरह अन्य अपराधी भी जंगली पशु हैं, ऐसा मानकर नहीं चला जा सकता। बल्कि उनकी अपराध. वृत्तिका निदान खोजना और पाना जरूरी है, इसलिए, आदमियोंके मामलेमें जानवरोंवाला तक नहीं लगाना चाहिए। जो नीति पशुजातिपर लागू है, वह कुछ हा, वह चाह लाठी-भैंस (=-might is right ) वाली ही नीति हो,पर इसलिए वह मानव जातिकी भी नीति हो सकेगी, सो कदापि नहीं।
प्रश्न-आदमी पशु नहीं है, लेकिन उसमें पशुता है: और समाज विल्कुल जंगल नहीं है, लेकिन उसमें कुछ जंगलपन है। क्या आप ऐसा नहीं स्वीकार करते ? और फिर क्या उस पशुता और जंगलपनके लिए वही (सशस्त्र ) उपाय आवश्यक नहीं हो सकता ?
उत्तर-मनुष्यमें जो पशुता और समाजमें जो जंगलकी समानता शेष है, वह है तो इसलिए है कि मानवके प्रयत्नोंसे वह उत्तरोत्तर और भी कम हो । इसलिए वह नहीं है कि विकासकी घड़ीको उलटा चलाने के लिए समर्थनके तौरपर हम उस अपनी पशुतुल्यताका प्रयोग करने लग जावें।