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प्रस्तुत प्रश्न
प्रश्न - जो हिंसक है, उसके सामने कभी और कितने ही अहिंसक बन कर जायें, क्या वह सबको खा ही न लेगा ? यह विश्वास आप कैसे कर सकते हैं कि कभी वह हिंसासे वाज़ भी आयेगा ?
उत्तर- - वह क्या अपनी माँको भी खा लेता है, या खा गया है ? अगर हिंसक आदमी ऐसा नहीं कर सका, तो मैं अपना अहिंसाका विश्वास किस भाँति तोड़ दूँ ? हो सकता है कि वह मुझे खा जाय, लेकिन इससे क्या मुझे डरना चाहिए ? अगर वह मुझे खा जाता है, तो इसका यही तो मतलब है कि माँके जितना वह मुझे अपना नहीं समझता । मेरी कोशिश होनी चाहिए कि मैं अधिकाधिक उसका होता जाऊँ, यहाँ तक कि उसकी माँसे भी अधिक मैं उसका हो जाऊँ । तत्र निश्चय ही वह मुझे नहीं खा सकेगा । तब वह मेरी बात सुनेगा और मानेगा । आप पूछते हैं, कब ऐसा होने में आयेगा ? मैं कहता हूँ कि चाहे तो अगली घड़ी ही ऐसा होने में आ जाये, और चाहे तो जन्म-जन्मांतरमें भी वह हृदय - परिवर्तन न दीखे; लेकिन, उससे कुछ बनता बिगड़ता नहीं है । शहादत इसलिए श्रेष्ठ नहीं है कि वह तत्काल चमत्कार दिखा देती है । वह शहादत है, यही बड़ी बात है । इसलिए फल न भी दीखता हो और चाहे सामने मौत ही दीखती हो ( और हमारी ये स्थूल आँखें देखती भला कितनी दूर तक हैं ? ) यह निश्चय मानना चाहिए कि विधेय अहिंसा ही है । दूसरी ओर फल बृहत् भी समक्ष दीखता प्रतीत होता हो, फिर भी पक्की प्रतीति रखनी चाहिए कि हिंसा मानव-धर्म नहीं है ।
प्रश्न - लेकिन अगर आप एक ऐसे जंगलमें रहते हैं, जहाँ शेरका आतंक है, तो क्या आप उसके द्वारा खाया जाना शहादत समझेंगे ? ऐसी अहिंसा क्या आत्म-हिंसाहीके निकट नहीं है ?
उत्तर – मैं जो करूँ, क्या सचाई उसपर मौकूफ है ? शेरसे डर लगता हो तो मनसे तो मैं उस डरके समय ही उस शेरका बधिक वन गया । तब ऊपरसे अहिंसाका ढोंग निभाना तो दोहरा पाप हुआ । इसलिए अगर मुझमें भय विद्यमान है, तत्र यही योग्य है कि अपने को बचाने के लिए मैं बने तो उसको मार भी दूँ | लेकिन अगर वैसा भय नहीं है, तो शेरको अपनेको खा जाने भी दूँ, तो इसमें मुझे कोई अनीति नहीं मालूम होती । यह श्रेष्ठतर हो सकता है ।