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क्रांति : हिंसा-अहिंसा
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प्राकृतिक नियमोंको उलंघन करते रहनेका एकत्रित परिणाम है । वह दबी हुई सचाईका फूट पड़ना है। उपयुक्त यह है कि वह सचाई हमारे व्यक्तिगत और सामाजिक जीवनमें अधिकाधिक व्यक्त होती रहे । वह कुचली तो जा नहीं सकती । इसलिए जब जब ऐसा होता है, उसको दबाया और कुचला जाता है, तब तब मानो क्रांतिके भी बीज बोये जाते हैं। जैसे दमनके ( Repression के) परिणाममें जब विस्फोट ( = Explosion ) होगा ही, तो उस विस्फोटको अभीष्ट या अनभीष्ट क्या कहा जावे ? हाँ, अभीष्ट यह अवश्य है कि जीवन में ( सत्यका ) दमन कमसे कम हो और अभिव्यक्ति उत्तरोत्तर अधिक हो । क्रान्ति सामाजिक स्थूल अर्थमे चाही नहीं जा सकती, चाही तो शान्ति ही जा सकती है । लेकिन उस क्रान्तिसे मँह भी नहीं मोड़ा जा सकता, क्यों कि वह तो कर्मपरंपराका एक भाग है।
प्रश्न-दवी हुई सचाईका जो फूट निकलना विकासके लिए अनिवार्य है, आप उसमें सहायक होना चाहेंगे अथवा नहीं?
उत्तर-उस सचाईके दबानमें सहायक नहीं होना चाहूँगा । इसलिए सचाईको फोड़ेकी भाँति फूटकर निकलना पड़े, इस संभावनाको मैं कम चाहूँगा । लेकिन निश्चय ही फोड़ा जब फूटे, तो उस दृश्यसे घबराना नहीं चाहूँगा और मुँह नहीं मोदूंगा, बल्कि मरहम-पट्टी लेकर पास रहना चाहूँगा ।
प्रश्न-लेकिन वह फोडा जव फोडा है, उस समय, उसके प्रति आपका क्या कर्त्तव्य होगा ?
उत्तर-जो होना चाहिए । यानी उसे पकने देना और नश्तरके लायक हो तो वैसा करना । लेकिन इस उपमाको हम बहुत आगे न खींचें। इसमें खतरा यह है कि हर कोई अपनेको डाक्टर मान सकता है, और जो बात उसे पसंद न आये उसे फोड़ा कह सकता है । इसीलिए क्रान्तिकी बात करते समय, या कोई बात करते समय, आहिंसा-तत्त्वका सदा ध्यान रखना पड़ेगा । ' अहिंसा में यह गर्भित है कि भविष्य भविष्यके हाथ में है। फल विधाताके वश है। इससे भविष्यको बनानेके इरादेसे, यानी फल-आकाक्षामें, कोई ऐसा कर्म नहीं किया जा सकता जो अनैतिक हो । जब अनैतिक कर्म किया जाता है, तो उसके भीतर परिणामका मोह रहता है । परिणाम जिसके हाथ है, उसके हाथ है । अतः करना तो सत्कर्म ही होगा। वैसा करके फलकी चिन्तासे निश्चिन्त रहा जा सकता है।