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प्रस्तुत प्रश्न
उत्तर-समाजने क्या उन्हें पैदा भी किया था ? हाँ, मैं उसे हिंसा कहूँगा। फाँसीकी सज़ाके मैं हकमें नहीं हूँ। लेकिन शेर अगर बकरीको खा जाता है, तो यह कहनेसे क्या फायदा कि शेरके उस प्रकार अपने शिकारको खा जानेके में हकमें नहीं हूँ। फायदा नहीं, फिर भी मैं यह कहता हूँ। क्यों कि मैं नहीं मानूँगा कि आदमी जानवर ही है। जानवर रहने के लिए आदमी आदमी नहीं है । मैं समझता हूँ कि समाजकी यह बदला निकालनकी भावना (=Revenge ) है जो अपराधीको फाँसी तक भेजती है । लेकिन अब इस तत्त्वको अधिकाधिक पहचाना जा रहा है कि समाजमें अपराध और अपराधीके प्रति बदलेकी नहीं सुधारकी भावना चाहिए । जेलका नाम 'रेफरमेशन केम्प' होता जा रहा है, सो क्यों ? यानी जो व्यक्ति असामाजिक व्यवहार करता है समाज उस असामाजिकताको निषिद्ध ठहरा सकती है और उसे मिटानेका आग्रह कर सकती है, किन्तु व्यक्तिको ही मिटा डालनेका दावा उसका नहीं हो सकता, क्यों कि यह निर्विवाद है कि मनुष्य मूलतः सामाजिक प्राणी है । ऐसा होकर भी यदि वह असामाजिक वर्तन ( =अपराध) करता है, तो यह विकार अकारण नहीं हो सकता । आवश्यकता है कि बाह्य परिस्थिति और उस व्यक्तिकी चित्तवृत्तिमेसे उस असामाजिकताका 'क्रिमिनेलिटी'का, निदान खोजा जाय । मौतकी सजा समाजके हकमें उसकी हारका प्रमाण है । वह दीवालियापन है ।
प्रश्न-आपने कहा कि जिसे इन्काच या क्रान्ति कहा जाता है वह भी विकासहीकी क्रिया है। तो क्या उस क्रान्ति अथवा इन्लाबको विकासकी क्रिया मानते हुए उसे आप अभीष्ट समझते हैं, और क्या इस तरह क्रान्तिवादियोंसे आपका मत-भेद अभिधा-संज्ञाके (Nomenclature के ) सिवा और कुछ नहीं है?
उत्तर-अभीष्ट या कुछ समझनेकी उसे गुंजायश नहीं है। भूचालको अभीष्ट समझा जाय, अथवा क्या समझा जाय ? हमारे अपने हाट-बाटके जीवनकी दृष्टिसे भूचाल इष्ट नहीं है । लेकिन यह कहना किसके हाथमें है कि वह भूचाल भी किन्हीं अनिवार्य कारणों का परिणाम नहीं होता होगा ? फिर भी हम प्रार्थनापूर्वक
और यत्नपूर्वक भूचालको नहीं बुला सकते । ___ इसलिए संक्षेपमें यह कहा जा सकता है कि क्रांति, क्यों कि वह अपने में इष्ट नहीं है, इसलिए कभी की जानी नहीं चाहिए । क्रान्ति जिसे हम कहते हैं, वह