________________
क्रान्ति ः हिंसा-अहिंसा
१३१
.
...
..
निस्बत खून कम बहा, लेकिन यह देखना शेष है कि उनका फल क्या वह हो सका जो चाहा जाता था। असलमें राज-क्रान्ति बाहरी उथल-पुथलसे संबंध रखती है । वह सच्ची क्रान्ति ही नहीं है क्यों कि उससे व्यक्तिकी मूल स्थितिमें कोई परिवर्तन नहीं होता। शासन केवल इस हाथसे उस हाथमें चला जाता है । कह दो कि कमज़ोर हाथोंसे मजबूत हाथों में चला जाता है; पुरानोंकी जगह नये आदमी आते हैं, और बस । शासनका, यानी शासकका, हृदय-परिवर्तन नहीं होता। अर्थात् राजक्रान्तियाँ, जो हिंसाके साथ होती हैं, ढाँचेको बदलती हैं, अंतः प्रवृत्तिको नहीं छती; शासन-विधानको बदलती हैं, जीवन-पद्धति और जीवनविचारके मूलको नहीं बदलतीं। इसलिए उन्हें क्रान्ति भी क्या कहना । जो सच्ची है और संपूर्ण है, वह क्रान्ति तो हृदयमें जन्म लेगी । वह सर्वांगीण होगी और इसीलिए वह क्रान्तिका घोष नहीं शान्तिकी इष्टता चाहेगी। बाहरी कोलाहल उसे अभीष्ट न होगा। फिर भी देखते देखते वस्तुओंके मूल्योंमें ऐसा कुछ मौलिक अंतर पड़ जायगा कि हम उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते थे । ऊपर जिस परिवर्तनकी आवश्यकता कही, वह ऐसी ही शान्तिमय क्रान्तिसे संपन्न होगा। उसमें समाज-विधानके भंगकी संभावना, जैसी कि राजक्रान्तिमें हुआ करती है, नहीं होगी; क्योंकि, वह राजक्रांति नहीं जीवन-क्रान्ति होगी।
कठिनाई यही है कि शासन-विधानको हम मूल मानवीय ( =जीवनकी) परिभाषामें नहीं देखते हैं, उसे राजनीतिशास्त्रके ( = Science of Political Economy के ) कानूनोंकी परिभाषामें देखते हैं और इसलिए राज्य-विधान तो बदलना चाहते हैं, समूचे जीवनमें तदनुकूल हेर-फेर नहीं करना चाहते । इस भाँति राजक्रान्ति तो शायद हो भी पड़े, पर सच्चा सुधार कोई नहीं होता । इस लिए आवश्यकता है कि क्रान्तिको हम संकुचित सीमित राजनीतिक अर्थमें न लें, बल्कि व्यापक जीवनके अर्था में ले । तब शायद बिना 'क्रान्ति' शब्दकी आवश्यकता पड़े शान्तिसे ही वह क्रान्ति हो जायगी ।
प्रश्न-समूचे समाजके हितमें यदि कुछेकको बाधक समझा जाता है और समाजकी रक्षाके लिए वैध उपायोंद्वारा (=Lawfully) बिना किसी व्यक्तिगत राग-द्वेषकी भावनाके उन कुछेकको ख़त्म कर दिया जाता है, तो क्या इसे आप हिंसात्मक कहेंगे?