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प्रस्तुत प्रश्न
सर्वेसर्वा नहीं है, वह विशिष्ट सामाजिक उपयोगकी एक संस्था मात्र है । इसलिये स्वत्वाधिकार सब पदार्थोंपर स्टेटका मानना विशेष अर्थ नहीं रखता । बल्कि वह एक विशिष्ट प्रकारका पूँजीवाद ( = State Capitalism ) हो जा सकता है, जो कि अनिष्ट है ।
प्रश्न – अधिकार अथवा स्वत्वाधिकारकी वातको जाने दीजिए । जानना तो मैं यह चाहता था कि जो कुछ भी कमसे कम हरेक व्यक्तिकी अपनी आवश्यकताएँ होंगी, उनको इस प्रकार पूरा करनेका काम ( =Function ) कौन-सी एक ऐक्यकारक ( = Unifying ) सत्ताका होगा कि जिसमें समटिका स्वास्थ्य बना रहे ?
उत्तर - पारस्परिक सहयोग - भावनासे वह काम होगा । सत्तासे क्या मतलब ? सैनिक शक्तिस सन्नद्ध सत्ता ? वैसी सत्ताको हम क्यों न एक दिन अनावश्यक बना दें । परस्परका सहयोग ही तब एक जीवित तत्त्व होगा । और यदि आप चाहें तो वह आपसी सहयोग ही आवश्यक होनेपर यथानुकुल संस्थाका स्वरूप सुझा देगा और स्वयं उस स्वरूपको स्वीकार कर लेगा ।
प्रश्न - किन्तु, उस सहयोग के लिये क्या किसी भी प्रकारकी संस्था होना अनिवार्य नहीं है, और उस संस्थाको आप स्टेट न कहकर क्या कहेंगे ?
उत्तर – सहयोग आवश्यतानुसार संस्था-रूप हो ही जायगा । परिवार भी क्या एक संस्था नहीं है ? दापय भी एक संस्था है । नगर भी एक संस्था ही है अगर उसमें कोई भी एकत्रित सांस्कृतिक सामान्यता हो । इसलिये संस्था अथवा संस्थाएँ तो होंगी ही । लेकिन उनका विधान इसी समय पेश नहीं किया जा सकता। उस संस्थाका नाम 'स्टेट' होगा भी, तो इसमें मुझे यही कहने योग्य जान पड़ता है कि 'स्टेट' शब्द में ही शासन-संबंधी बाह्य उपादान, यथा पुलिसफौज आदिकी आवश्यकताकी ध्वनि आती है । मैं समझता हूँ कि मानव-जीवन के विकास के साथ शनैः शनैः ये संगठित हिंसा के उपकरण कम और लुप्त होते जायँगे । उन हिंसोपकरणों के संगठन के बिना भी स्टेटकी अगर आप धारणा कर सकते हैं, तो ऐसी अवस्था में उसे 'स्टेट' कहने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है ।
प्रश्न - वैसी स्टेट लानेके लिये क्या आजकी सामाजिक व्यवस्था