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प्रस्तुत प्रश्न
फैलाऊँ जो मुझे पचास सूट चुप-चाप नहीं दे देता है । अब कहिए, क्या कहिएगा ?
लेकिन यह कठिनाई उत्पन्न ही इसलिए हुई है कि जीवनकी अत्यन्त सामान्य आवश्यकताओंके बारमें हमने सामाजिक विषमताको आश्रय देकर अभाव और अनिश्चयकी संभावना पैदा कर दी है । एकके पास आज जाड़ेसे बचने लायक भी कपड़ा नहीं है । वह ज्यों त्यों ठिठुरकर रात बिताता है । पासमें धन होते ही क्या आप संभव समझते हैं कि एक बार तो कपड़े के मामले में वह अपनी हवस पूरी तरह नहीं निकाल लेना चाहेगा? फिर भविष्य-संबंधी अनिश्चय भी आदमी संग्रहकी तृष्णा बढ़ाता है। तिसपर इन सामान्य आवश्यकताओंसंबंधी पदार्थों की गिनतीस व्याक्तिको छोटा अथवा बड़ा भी समझ लिया जाता है । इसीसे तरह तरहके रागचक्र ( =Complexes ) और मद-मत्सर
आदि पैदा होते हैं । अगर ये बातें हट जायँ, वातावरणमें स्पर्धा न रहे, तो क्या मुझे पचास अदद सूट बोझ और बेवकूफ़ी ही नहीं मालूम होने लगेंग ? जितनेसे मेरा काम चलेगा, उतनेसे अधिक फिर मैं चाहँगा ही क्यों ? आज भी चार रोटीसे मेरा पेट भरता है, तो कल जाने क्या हो, इस खयालसे पाँचवी रोटी तो मैं पेटमें ठूसने की कोशिश नहीं करता । अतः, समाजमें स्वास्थ्य हो चले और विषमता कम हा तो धन-सम्पत्तिके मामलेमें भी व्यक्तिकी लोभ-वृत्ति एक रोग समझी जाने लगे । और लोग उस संग्रह-सतृष्ण व्यक्तिपर ईर्ष्या करनेके बजाय करुणा करें।
आप देखें कि जीवनके जरूरी उपादानों के बटवारेका सवाल उतना पेचीदा उस अवस्थामें नहीं रहता है। मेरी जरूरतें मेरा बंधन हैं । जरूरतें बढ़ेगी तो आज़ादी घटेगी। जरूरतें घटेंगी तो बोझ भी कम होगा । बोझ कम हुआ कि फिर मैं प्रगतिके निमित्त खुला और हलका हो जाऊँगा।।
आज तो धनका नहीं धूपके बटवारेका भी सवाल है । लोग रुपया देकर ज़मीनके बाड़ेके बाड़े घेर लेते हैं जिसका फल यह होता है कि दूसरा आदमी सीलदार भिटमें रहनेको लाचार होता है । जिस पद्धतीसे धूप, हवा, पानीकी समस्याका हल साफ़ और आसान मालूम होता है, ठीक वही पद्धती और तरहके बटवारेमें भी काम देगी । उस पद्धतीसे वह बटवारा भी सरल हो जायगा ।